पृष्ठ:दासबोध.pdf/२५७

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दासबोध। [दशक ७ सारे ज्ञाताओं के लिए विश्रान्ति की केवल वह एक ही जगह है! ॥२॥ गुरु और शिष्य दोनों के लिए एक ही पद है-वहां भेदाभेद नहीं है; परन्तु इस देह का सवन्ध छोड़ना चाहिए! ॥ २६ ॥ देहबुद्धि का अंत हो जाने पर सब को एक 'वस्तु' प्राप्त होती है । श्रुति का वचन है कि " एकं ब्रह्म द्वितीयं नास्ति " ब्रह्म एक ही है दूसरा नहीं है ॥ ३० ॥ साधु तो अलग अलग देख पड़ते हैं; परन्तु जब वे स्वरूप में मिल जाते हैं तब सब मिल कर वे एक ही देहातीत 'वस्तु' हो जाते हैं ॥ ३१ ॥ ब्रह्म नया नहीं है। पुराना नहीं है, न्यून नहीं है, अधिक नहीं है । जो उसके विपय में न्यून भावना करता है वह देहबुद्धि का कुत्ता है ! ॥३२॥ देहबुद्धि का संशय समाधान का क्षय करता है और उसके योग से समाधान का मौका भी निकल जाता है ॥ ३३ ॥ देह को श्रेष्ठ समझना ही देहबुद्धि का लक्षण है; इसी लिए विचक्षण पुरुष देह को मिथ्या जान कर उसकी निंदा करते हैं ॥ ३४ ॥ मरते समय तक देहाभिमान मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता, इसी कारण मनुष्य जन्म-मरण के फेरे में पड़ा रहता है ॥ ३५ ॥ मनुष्य-प्राणी ऐसा अज्ञान है कि देह की क्षणभंगुरता को न समझते हुए-किन्तु उसे श्रेष्ठ समझते हुए-अपनी शान्ति खोता है ॥ ३६ ॥ संत लोग कहते हैं कि ' हित' देहातीत है और देहबुद्धि से अनहित जरूर ही होता है ॥३७॥ योगियों को भी, यदि अपने सामर्थ्य का अभिमान आ जाता है, तो यही देहाभिमान उनके लिए भी विघ्न- कारक होता है ॥ ३८ ॥ इस लिए, जब देहबुद्धि का नाश होता है तभी परमार्थ बनता है-देहाभिमान के कारण ही ब्रह्म से फूट होती है ॥३६॥ विवेक मनुष्य को 'वस्तु ' की ओर खींचता है और देहाभिमान वहां से गिराता है-अहंता मनुष्य को परमात्मा से अलग करती है ॥ ४० ॥ इस कारण विचक्षणों को, देहबुद्धि त्याग कर, यथार्थ रीति से, परब्रह्म में लीन हो जाना चाहिए ॥४१॥ इस पर श्रोता प्रश्न करता है कि " ब्रह्म कौन है ? " वक्ता उत्तर देता हैः-॥ ४२ ॥ वास्तव में ब्रह्म एक ही है; परन्तु वह बहुत प्रकार से भासता है। अनेक मतों के अनुसार, भिन्न भिन्न प्रकार से, अनुभव प्राप्त होता है ॥४३॥ जिसे जैसा अनुभव प्राप्त होता है वह वैसा ही मानता है और उसीमें उसका विश्वास होता है ॥ ४४ ॥ परन्तु वास्तव में ब्रह्म नाम और रूप से अतीत है; तथापि निर्मल, निश्चल, शान्त और निजानन्द आदि उसके बहुत से नास हैं ॥ ४५ ॥ और भी, अरूप, अलक्ष, अगोचर, अच्युत, सत्य