पृष्ठ:दासबोध.pdf/२६

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प्रस्तावना । १५ समान महात्मा का दर्शन करने के लिए, ती उत्कंटा हुई। पर यह दर्शन हो कैसे ? समर्थ स्वयं पहले पहल उनके यहाँ जानेवाले न थे; और न वे एक स्थान में रहने ही थे जो छनपत्ति महाराज सहज में दर्शन कर सकते। अन्त में जव शिवाजी को समर्थ दर्शन-लालसा अनिवार्य होगई तब वे स्वयं एक दिन अपने महल से निकल कर, जंगल पहाड़ों में समर्थ का खोज करते हुए, निकले । यही कठिनाई से वन में एक आदम्बर वृक्ष के नीचे शिवाजी को समर्थ के दर्शन हुए। यही शिवाजी महाराज ने मंत्रोपदंश लिया । उसी दिन से सद्गुरु और मुमुक्षु-शुद्ध खानंत्र्येच्छुक-शिष्य. दोनों मिलकर धर्म- प्रचार और लोकोद्वार का कार्य करने लगे। समय और शिवाजी ना सम्बन्ध नैसर्गिक, चड़ा गहन, विस्तृत और विचार करने योग्य है । इस विषय का गला भाँति विचार करने के लिए एक स्वतंत्र ग्रन्थ या अनेक निबन्धों का आवश्यना है। उसका कुछ विनवा हम आगे चल कर करेंगे। इस प्रकार चाफल स्थान में रह कर ममर्थ ने प्रचण्ड शिष्य-समुदाय कट्टा किया और वहाँ शाकं. १५७० ( सन् १६४८) में उन्होंने शिवाजी की सहायता से एक मन्दिर बनधा- कर, श्रीरामचन्द्रजी की स्थापना की । समर्थ के अनेक शिष्य और महन्न उनी मठ मे रहते थे । वे नाना प्रकार से श्रीराम का उत्सव करके धर्म को धूम मचाये रहने थे । समर्श अपनी इच्छा के अनुसार, कभी मठ में रहने, कभी वनपर्यनों की गुफाओं मे रहने और कभी मुख्य मुख्य शिष्यों को साथ लेकर महाराष्ट्र-प्रान्त में धर्म प्रचार करने फिरते थे । सारे काम करते हुए भी उनका मन अन्वंदरूप से आत्माराम में लगा रहता | A. जगह व स्वयं कहत हैं:- दास डोगरी राहातो । यात्रा देवाची पाहातो ॥ देवभक्तासवें जातो। ध्यानरूपें ॥ " दास ( रामदासस्वामी ) पर्वतों में रहना है; और बही से चैटे चैटे, श्रीराम का. वस्ती में निकला हुआ, जुलूस देखा करता है। इतना ही नहीं, यह भ्यानरूप से देवगत के साथ उस जुलूस में शामिल भी होता है !" एक बार समर्थ कुछ शिष्यों को साथ लेकर करवीर प्रान्त में धर्मप्रचार करने को गये । वहाँ अनेक स्थानों में उनके भजन कीर्तन को सुनकर लोग शरण आये । उस प्रान्त के मुखिया और शिवाजी के सूबेदार पाराजीपन्त ने दीक्षा ली। उनकी बहन समर्थ के भक्तिभाव को देखकर, अपने दो लड़कों के साथ, समर्थ की सेवा में रहने लगीं। उसके ज्येष्ठ पुत्र का नाम अम्बादास था। वह लिखने पढ़ने में बहुत तीन था, इसलिए समर्थ ने उसे अपना लेखक वनाया । यही अम्बादास समर्थ के मुख्य. शिप्य और महन्त वनकर, फल्याणस्वामी के नाम से प्रसिद्ध हुए। समर्थ ने जितने ग्रन्थ रचे चे सव कल्याणस्वामी ही के लिखे हुए हैं । समर्थ पद्य चोलते जाते थे