पृष्ठ:दासबोध.pdf/२६१

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१८० दासबोध। [ दशक . 6 निर्गुण' संज्ञा देना, मानो उसे स्वयं अशाश्वत सिद्ध करना ही है ! ॥ ४० ॥ अव 'वाच्यब्रह्म' को देखिये; जिस प्रकार 'निर्गुणब्रह्म स्वयं अपने नाम ही से अशाश्वत सिद्ध हो चुका है, उसी प्रकार 'वाच्यब्रह्म' भी सिथ्या है; क्योंकि वाचा की गति तो उन्हीं विपयों तक है, जिनका उपर्युक्त ब्रह्मों में खंडन हो चुका है। ॥ ४१ ॥ अब आनन्दब्रह्म'को लीजिए; अानन्द भी वृत्ति की ही भावना है; और वृत्ति प्रत्यक्ष नश्वर है, शतएव 'आनन्दब्रह्म' तो प्रत्यक्ष ही अशाश्वत है । अब तदाकारब्रह्म' लीजिए; तदाकारता हो जाने पर वृत्ति कुछ अलग रहती ही नहीं; और विना वृत्ति के 'तदाकार' यह भावना कहां से हो सकती है; अतएच तदाकारब्रह्म ' भी कुछ नहीं है ! ॥४२॥ अच्छा, अब रहा 'अनिर्वाच्य- ब्रह्मः' परन्तु 'अनिर्वाच्य' यह नामनिर्देश भी तो वृत्ति ही के कारण है; परन्तु ब्रह्म में तो निवृत्ति आ जाती है। अतएव 'अतिर्वाच्यब्रह्म' भी शाश्वतब्रह्म नहीं है-तात्पर्य, ब्रह्म का नाम-निर्देश ही नहीं हो सकता॥४३॥ अस्तु । जो निवृत्तिदशा अनिर्वचनीय है वही उन्मनी अवस्था है-वहीं योगियों की निरुपाधि विश्रान्ति है ॥४४॥ जिस वस्तु ' में नाम, रूप,. गुण, वृत्ति, आदि कोई भी उपाधि नहीं है वही ज्ञानियों की सहज समाधि है; और उसीसे भवसागर की आधिव्याधि दूर होती है ॥ ४५ ॥ जहां सब उपाधियों का अन्त हो जाता है, वही सिद्धान्त है-सिद्धान्त ही नहीं; किन्तु वही चेदान्त है और वही श्रात्मानुभव है ! ॥४६ ॥ अस्तु । ऐसा जो शाश्वत ब्रह्म है; जहां माया भ्रम नहीं है, उसका मर्मअनु- भवी पुरुष स्वानुभव से जानते हैं ॥ ४७ ॥ अपने ही अनुभव से, पहले कल्पना का नाश करके, फिर अनुभव का आनन्द लूटना चाहिए ॥ ४॥ निर्विकल्प की कल्पना करने से कल्पना सहज ही मिट जाती है और फिर कुछ भी न रह कर (परमात्मरूप होकर) करोड़ों कल्प तक रह सकते हैं !॥ ४६॥ कल्पना में एक अच्छाई है, कि उसे जहां लगाते हैं वहीं वह लग जाती है, और उसे यदि हम परमात्म-स्वरूप में लगा देते हैं तो स्वयं उसीका लय हो जाता और 'हम' भी वही रूप हो जाते हैं ! ॥५०॥ निर्विकल्प की कल्पना करने से कल्पना स्वयं मिट जाती है; निःसंग की भेट करने से स्वयं निःसंग हो जाते हैं ॥ ५१ ॥ अस्तु । ब्रह्म कोई पदार्थ नहीं है, कि जो हाथ से रख दिया जाय ! सद्- गुरु के ज्ञानोपदेश से वह अनुभव में आता है ! ॥ ५२ ॥ श्रागे फिर इसी विषय का निरूपण करते हैं। उससे केवल ब्रह्म समझ में श्रा जायगा ॥ ५३॥