पृष्ठ:दासबोध.pdf/२७

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दासबोध। और कल्याणस्वामी लिखते जाते थे। चाफल के आस पास वन पर्वतों में बैठ कर वे ग्रन्थ-- रचना किया करते थे। चाफल के लोगों ने जब एक बार बहुत आग्रह किया तब वे पंढरपुर की यात्रा को गये । यहाँ विठ्ठलजी (श्रीकृष्ण ) के दर्शन किये । समर्थ के उपास्य देव श्रीराम थे, इसलिए पंढर- पुर में उन्हें अयोध्या की भावना होने लगी और विठ्ठलजी की मूर्ति उन्हें राममूर्ति सी देख पड़ने लगी। यात्रा से लौटने पर कुछ दिनों के वाद, श्रीशिवाजी के बहुत आग्रह करने पर सुन सतारे के समीप सजनगढ़ पर रहने लगे। वहाँ शिवाजी महाराज निल उनके दर्शन को आते थे। एक दिन समर्थ की माता और वन्धु का यह पन्न आया कि, बहुत दिन से मेट नहीं हुई, इसलिए एक बार फिर मिल जाओ शाके १५७४ ( सन् १६५२) में रामनवमी के उत्सब पर वे फिर अपनी जन्मभूमि को गये और अपनी माता तथा वन्धु के साथ कुछ दिन रह कर फिर सज्जनगढ़ को लौट आये। शाके १५७५ ( सन् १६५३ ) में वे सज्जनगढ़ से कुछ शिप्यमण्डली. साथ लेकर तैलंग प्रान्त में भ्रमण करते हुए रामेश्वर तक गये । तैलंग-प्रान्त में, कई मास रह कर, उन्होंने अपने सम्प्रदाय की बहुत शुद्धि की । तैलंगी भाषा सीख कर उन्होंने उस भाषा में भी अनेक कवितायें रची और उनका वहाँ प्रचार किया। अनेक प्रकार के अनोखे चमत्कार दिखला कर बड़े बड़े मानी पंडितों का गर्वगलित किया । अनेक पण्डित उनके शरण में आये और भजनमार्ग में लग गये । तंजौर में राजा व्यंकोजी ( शिवाजी के भाई ) ने समर्थ को अपने यहाँ एक मास तक बड़े आदर से रक्खा और मंत्रदीक्षा ली। वहाँ भी समर्थ ने एक मठ स्थापित किया और उसमें सतीबाई के पुत्र भिकाजी याचा को नियत किया । तंजौर से आगे चलकर वे रामेश्वर को गये। मंचल-क्षेत्र में राघवेंद्रस्वामी से मिले। इस प्रकार तीर्थयात्रा और भ्रमण करते हुए, मठ स्थापन करके अपने अपूर्व चमत्कारों से लोगों को स्वधर्म की ओर लगाते हुए, समर्थ कुछ दिनों के बाद अपने पूर्वस्थान चाफल में लौट आये । उनका आगमन सुनते ही शिवाजी महाराज वहाँ उनसे मिलने आये और अपने साथ सजनगढ़ पर ले गये। 1 फुटकर बातें। कुछ दिन के बाद उनकी माता का अन्तकाल आया। यह बात समर्थ ने अपने अन्त- जीन से पन्द्रह दिन पहले ही समझ ली । जिस समय उनकी माता ने अपने ज्ोधपुत्र से कहा, " मेरा नारायण अन्तकाल में यहाँ नहीं है।" उसी समय वहाँ पहुँच कर समर्थ ने अपनी माता के चरणों पर सिर रखखा। उन्होंने कहा कि, मैं अब आपके समीप आ गया; आप मुख और शान्ति से प्राणत्याग कीजिए । शाके १५७७ सन् १६५५) में की माता का स्वर्गवास हुआ। अका उत्तर-कार्य हो जाने पर समर्थ फिर सजानगढ़ को लौट आये।