पृष्ठ:दासबोध.pdf/२७२

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समास ] साधन का निश्चय। जो परमशुद्ध तत्वज्ञाता हैं उनके लिए बद्ध और मुसा का भेद ही नहीं है। मुक्त बद्ध का विनोद माया के कारण से है ॥ ५६ ॥ जहां नामरूप मिट जाता है वहां 'मुक्तता कैसे बच सकती है ? वहां तो मुचा और वद्ध का विलकुल ही विस्मरण हो जाता है ॥ ५७ ॥ बद्ध और मुक्त । वास्तव में कौन है ? वह (बद्ध-मुक्ता ) ' में ' तो है नहीं; किन्तु ' मैपन अवश्य सब को बांधता है। जो कोई ‘मैपन का धारण करता है उसीको वह बन्धन में डालता है (अर्थात् जो देहाभिमान रखता है उसीको चाहे मुक्त समझो चाहे बद्ध; जिन्होंने 'मैं-पन' छोड़ दिया है वे न बद्ध हैं, न मुचा है ! ) ॥ ५८ ॥ एवं च, यह सारा भ्रम है। जब तक मायातीत विश्राम का सेवन नहीं किया जाता तब तक श्रहंता का यह कष्ट पीछे लगा ही है ! ॥५६॥ अस्तु । अब, बद्धता और मुमता कल्पना के मत्ये आती है- तो फिर, क्या वह कल्पना सत्य है ? अर्थात् वह भी तो सत्य नहीं है ! ॥ ६०॥ अतएव, यह सब मृगजल है; माया ही के कारण ये झूटे मेघाडम्वर उठे हैं ! ज्ञान-जागृति आने पर यह सब माया का स्वप्न तत्काल मिथ्या हो जाता है ॥ ६१ ॥ इस स्वामरूप संसार में, जो समझता है, कि मैं वद्ध हूं या मुक्ता हूं, वह अभी सचमुच जगा नहीं है-इसी लिए उसे नहीं मालूम होता कि कौन, कैसा, क्या हुआ ! ॥ ३२॥ इस लिए, जिनको आत्मज्ञान हो चुका है, वे सभी लोग मुक्त हैं-शृद्ध ज्ञान होने पर मुक्तता की भावना समूल नष्ट हो जाती है ॥ ६३ ॥ बद्धपन या मुक्तपन की भावना देह-बुद्धि के साथ रहती है। परन्तु साधुजन देहातीत 'वस्तु' हैं; अतएवं उनके तई 'वद्ध' या 'मुक्त' की भावना ही नहीं रहती ॥ ६४॥ अच्छा, अब आगे यह बतलाया जाता है कि साधन कैसे करना चाहिए। श्रोता लोग सावधान होकर सुने ॥६५॥ सातवाँ समास-साधन का निश्चय । ॥ श्रीराम ॥ वस्तु' की यदि कल्पना की जाय तो कैसे ? क्योंकि वह तो ल्वामा- विक ही निर्विकल्प है-वहां तो कल्पना के नाम से शून्याकार है ॥१॥ इतने पर भी, यदि उसकी कल्पना की जाय तो वह कल्पना के हाथ में