पृष्ठ:दासबोध.pdf/२७३

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दासबोध। [ दशक ७ आता नहीं-पहचान ही नहीं मिलती-चित्त को भ्रम होता है! ॥२॥.दृष्टि को कुछ दिखता ही नहीं है, और न मन को ही कुछ भासता है-जो न सासता है, न दिखता है उसे पहचाने तो कैसे ? ॥३॥ यदि हम निरा- कार को देखते हैं तो मन शून्याकार में पड़ता है और यदि हम उसकी कल्पना करते हैं तो जान पड़ता है कि अंधकार भरा है ॥४॥ कल्पना । करने से ब्रह्म काला जान पड़ता है; परन्तु वह काला है न पीला! वह लाल, नीला, सफेद भी नहीं है-वर्णरहित है ! ॥५॥ जिसका रंग-रूप नहीं है, जो भास से भी अलग है; और जो इन्द्रियों का विषय नहीं है उसे पहचाने तो कैसे? ॥ ६ ॥ जो देख नहीं पड़ता उसकी पहचान कहां तक करें ? इससे तो व्यर्थ श्रम ही बढ़ता जान पड़ता है ! ॥ ७॥ वह निर्गुण या गुणातीत है, वह अदृश्य या अव्यक्त है और वह परम- पुरुप अचिन्त्य या चिन्तनातीत है:-॥८॥ अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने । समस्तजगदाधारमूर्तये ब्रह्मणे नमः ॥ १ ॥ अचिन्त्य की चिन्तना, अव्यक्त का ध्यान-स्सरण और निर्गुण की पह- चान किस तरह करें ? ॥६॥ जो देख ही नहीं पड़ता, जो मन को मिलता ही नहीं उस निर्गुण को कैसे देख सकते हैं ? ॥ १० ॥ असंग का संग करना, निरावलम्ब (निराधार; जैसे आकाश में ) वास करना, और निःशब्द का प्रतिपादन करना कैसे हो सकता है ? ॥ ११॥ अचिन्त्य की चिन्तना करने से, निर्विकल्प की कल्पना करने से, और अद्वैत का ध्यान करने से, द्वैत ही उठता है ! ॥ १२ ॥ अव यदि ध्यान ही छोड़ दें, अनु- संधान भी न लगावें, तो फिर पीछे से महा संशय में पड़ते है ।। १३॥ द्वैत' के डर से यदि वस्तु' का विचार ही न करें तो इससे हृदय को कभी शान्ति नहीं मिल सकती ॥१४॥ अभ्यास करने से अभ्यास हो जाता है, और अभ्यास होने से वस्तु ' प्राप्त हो जाती है-नित्यानित्य के विचार से समाधान होता है ॥ १५॥ 'वस्तु ' का चिंतन करने से द्वैत उपजता है और उसे छोड़ देने से कुछ समझ ही नहीं पड़ता, तथा विवेक-विना शून्यत्व के सन्देह में पड़ते हैं ! ॥ १६ ॥ इस लिए विवेक धारण करना चाहिये-ज्ञान के द्वारा प्रपंच से बचना चाहिए और अहंभाव को दूर करना चाहिए। परन्तु वह दूर नहीं होता! ॥१७ ॥ परब्रह्म अद्वैत है। उसकी कल्पना करते ही द्वैत उठता है-वहां हेतु s