पृष्ठ:दासबोध.pdf/२८

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प्रस्तावना। 1 शाके १५८० (सन् १६५८) में श्रीगमर्थ निजानन्दस्वामी के उत्पत्र में नामाड़ को गये । उत्सव-समाप्त होने पर वे लौट कर राज्जनगढ़ को आ रहे थे। उनके साा पजाम तीस शिप्य भी थे। दोपहर के समय में भूख लगने पर रामर्थ की आज्ञा लेकर शिष्यों ने कुछ जुआर के भुढे तोड़े और भून कर खाने लगे । समर्थ भी शिष्यों के पास ही एक आसन पर बैठे थे। इतने ही में खेतों का मालिक दौड़ता हुआ आया और समर्थ को, सबका प्रधान समक्ष कर, जुआर के डंठल से पीटने लगा। यह देख कर सब शिष्यों ने मिल कर उसे पकड़ा और मारने लगे। समर्थ ने कहा, उसे मारना उचित नहीं है-छोड़ दो। इसके बाद वह मालगुजार अपने घर चला गया और समर्थ, सब शिष्यों के साथ सितारे में शिवाजी के यहाँ चले आये । दूसरे दिन शिवाजी महाराज जब समर्थ को मंगल- म्बान करा रहे थे तब उनकी पीट पर मार की बड़ते शिवाजी को देख पड़ी। उन्होंने समर्थ से इस विषय में पूंछा; पर कुछ उत्तर नहीं मिला । भोजन के बाद जब श्रीसमर्थ शायनागार में विश्राम कर रहे थे तब, बहुत प्रयत्न करन पर, एक शिष्य से शिवाजी महाराज को मार्ग का सव समाचार मिला । उस मालगुजार की मूर्खता पर शिवाजी महाराज को बहुत क्रोध आया। उन्होंने अपने नौकरों को आज्ञा दी कि, उस मालगुजार की, मुसके वाँध कर, अभी ले आओ। समर्थ शयनागार में पड़े हुए ये सब बातें सुन रहे थे। उन्होंने शिवाजी महाराज को अपने पास बुला कर कहा कि, उस मालगुजार को वैधवा कर मत बुलाओ और मारपीट मत करो। इसके अतिरिक्त जो दण्ड हम कहें वही उसे दो। शिवाजी ने समर्थ की आज्ञा शिरोधार्य को । दरवार लगने पर वह माल- गुजार उपस्थित किया गया। वहाँ आने के पहले ही उसे मालूम हो गया था कि, जिरेस उसने साधारण वैग: समझ कर पोटा था ये छत्रपति शिवाजी महाराज के मान्य गुरु समर्थ श्रीरामदासस्वामी हैं । दरबार में आते ही उसने समर्थ को दिव्य और उच्च सिंहारान पर बैठे देखा। वह विचारा भय के कारण काँपने लगा और समर्थ के चरणों पर गिर कर रोने लगा। समर्थ ने आशीर्वाद किया कि, तेरा खेत तेरे लिए अच्छा फलेगा। इसके बाद वह उठ कर शिवाजी के पैरों में लिपट गया और क्षमा माँगने लगा। समर्थ के आज्ञानुसार उन्होंने उसके अपराध को क्षमा किया और वह खेत, उस मालगुजार को वंश परम्परा के लिए दे दिया। यह देख कर दरवारी लोग आश्चर्य करने लगे। सच है; क्यों न आश्चर्य करें ? उपकार का बदला, उपकार के द्वारा देनेवाले बहुत लोग हैं; पर अपकार करनेवाले पर भी उपकार करनेवाले केवल संत हैं। महात्मा तुलसीदासजी कहते है:- तुलसी संत सुअम्बतरु, फूल फलाह परहेत । इतते जन पाहन हनें, उतते वे फल देत ॥ वह समर्थ के नाम पर पाया हुआ खेत, उस मालगुजार के वंश में, अब भी कायम है। धन्य है यह क्षमा और उदारवृत्ति ।