पृष्ठ:दासबोध.pdf/२८१

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२०० दासबोध। [ दशक . . होती; और साधु-सन्यासियों को फलाशा का निरूपण नहीं भाता! ॥ १४ ॥ चीरकंकण यदि कोई नाक में पहले तो कैसे अच्छा लगेगा? जो बात जहां के लिए है वह वहीं अच्छी लगती है-अन्य स्थान के लिए वह बिलकुल निरुपयोगी है ॥ १५॥ जिस ग्रन्थ में, जिस तीर्थ की, महिमा गाई गई है, वह ग्रन्थ, उसी तीर्थ में, सुनाने से उसका महत्व है। अन्य स्थल में यदि वह पढ़ा जाय तो कुछ विलक्षण-सा जान पड़ता ॥ १६॥ जैसे यदि मल्लार-स्थल की महिमा द्वारका में, द्वारका का माहात्म्य काशी में और काशी की महिमा बैंकटेश-स्थल में बतलाई जाय तो अच्छी न लगेगी ॥ १७ ॥ ऐसे अनेक उदाहरण बतलाये जा सकते हैं- वे सब जहां के वहीं अच्छे लगते हैं। ज्ञानियों को अद्वैत-अन्य ही चाहिए ॥ १८ ॥ योगी के सामने भूत-संचार की बात, जौहरी के सामने पत्थर और पंडित के सामने उफगान अच्छा नहीं लगता ॥१६॥वेदज्ञ के सामने तंत्र-मंत्र, निस्पृह (सन्यासी) के सामने फलश्रुति और ज्ञानी के सामने कोक- शास्त्र की पोथी क्या शोभा देगी? ॥२०॥ ब्रह्मचारी के सामने नाच, अध्यात्म-निरूपण में रासक्रीड़ा और राजहंस के सामने जैसे पानी रखा जाय-॥ २१ ॥ वैसे ही अन्तर्निष्ट (आत्मज्ञानी) के सामने यदि शृंगारिक पुस्तक रखी जाय तो उससे उसका समाधान कैसे होगा? ॥ २२ ॥ राजा को गरीव की आशा रखना, अमृत को मट्ठा बतलाना और संन्यासी को "उच्छिष्ट चांडाली" के मंत्र का व्रत करना कैसे शोभा देगा ? ॥ २३ ॥ कर्मनिष्ठ को वशीकरण का मंत्र और पंचाक्षरी (झाड़ने कनेवालों ) को कथा-निरूपण यदि सुनाया जायगा तो इससे अवश्य उनका अन्तःकरण भंग होगा ॥ २४ ॥ वैसे ही, परमार्थी पुरुप के सामने यदि ऐसा ग्रन्थ पढ़ा जायगा, जिसमें आत्मज्ञान नहीं है, तो उसे समाधान न होगा ॥ २५ ॥ अव ये बातें बस करो। जिसे स्वहित करना हो वह सदा अद्वैत-ग्रन्थों का विचार करे ॥ २६ ॥ आत्मज्ञानी को, स्थिर चित्त होकर, अद्वैत-ग्रन्थ देखना चाहिए । और एकान्तस्थल में शुद्ध समाधान प्राप्त करना चाहिए ॥२७॥ सब प्रकार से विचार करने पर, यही निश्चित होता है कि, अद्वैत-ग्रन्थ के समान अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। वास्तव में परमार्थी पुरुष के लिए तो वह नौका ही है ॥ २८ ॥ दूसरी जो प्रापंचिक, हास्य-विनोदी और नवरसिक पुस्तकें हैं चे परमार्थी पुरुष के लिए हितकारक नहीं हैं ॥ २६ ॥ वास्तव में अन्य वही है कि जिसके द्वारा परमार्थ की वृद्धि हो, विषयों के विषय में पश्चात्ताप हो और भक्ति तथा साधन अच्छा लगे ॥३०॥ जिसे सुनते ही गर्वगलित हो जाय,