पृष्ठ:दासबोध.pdf/२८२

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समास ९] श्रवण का निश्चय २०१ भ्रान्ति मिट जाय और मन भगवान् में लग जाय, वही सच्चा ग्रन्य है ॥ ३१ ॥ ग्रन्थ वही है जिससे उपरति हो, अवगुण दूर हों और अधो- गति नाश हो ॥ ३२॥ सच्चा अन्य उसीको समझना चाहिए कि, जिसके सुनने से धैर्य श्रावे, परोपकार हो और विषय-वासना नष्ट हो ॥ ३३ ॥ जिसके द्वारा ज्ञान, मोन और पवित्रता प्राप्त हो, वही उत्तम ग्रन्थ है ॥ ३४ ॥ ऐसे अनेक ग्रन्य होंगे, जिनमें नाना प्रकार के विधान और फल- श्रुतियां कही है । परन्तु जिससे विरक्ति और भक्ति न उपजे, वह ग्रन्थ ही नहीं है ।॥ ३५ ॥ जिस ग्रन्थ की फलश्रुति में मोक्ष का समावेश न हो वह वास्तव में ग्रन्थ ही नहीं है-वह तो दुराशा की पोथी है-उसके सुनने से और दुराशा ही बढ़ेगी ॥ ३६ ॥ ऐसी पोथी के सुनने से मोह उत्पन्न होता है, विवेक दूर भागता है, दुराशा के भूत संचार करते हैं और अधोगति मिलती है ॥ ३७ ॥ फलश्रुति सुन कर जो कहता है कि, अ- गले जन्म में फल पाऊंगा, उसको जन्मरूपी अधोगति प्राप्त ही होती है ॥३८॥ अनेक पक्षी, 'फल' खा कर ही, तृप्ति मान लेते हैं; परन्तु उस चकोर के चित्त में 'अमृत' ही बसता है ॥ २६ ॥ इसी प्रकार (अन्य पक्षियों की तरह) संसारी मनुष्य संसार (फल) ही की इच्छा करते हैं; पर जो भगवान् के अंश हैं, वे (चकोर की तरह ) भगवान (अमृत) ही की इच्छा रखते है ॥४०॥ अस्तु । ज्ञानी को ज्ञान, भजक को भजन और साधक को, इच्छानुसार, साधन चाहिए ॥४१॥ परमार्थी को परमार्थ, स्वार्थी को स्वार्थ और कृपण को धन चाहिए ॥ ४२ ॥ योगियों को योग, भोगियों को भोग, और रोगियों को रोग हरनेवाली मात्रा, चाहिए ॥४३॥ कवियों को काव्य- प्रबंध, तार्किकों को तर्कवाद और भाविकों को संवाद अच्छा लगता है ॥४४॥ पंडितों को पांडित्य, विद्वानों को अध्ययन और कलावंतों को नाना कलाएं चाहिए ॥ ४५ ॥ हरिदास को कीर्तन, शुचिमानों को संध्या- स्नान और कर्मनिष्टों को विधिविधान अच्छा लगता है॥४६ ॥ प्रेमल को करुणा, विचक्षण को दक्षता और चतुर मनुष्य को चातुर्य से प्रीति होती ॥४७॥ भक्त मूर्तिध्यान देखता है; संगीत और राग जाननेवाला ताल, तान-मान और मूर्च्छना देखता है ॥४८॥ योगाभ्यासी पिण्डज्ञान, तत्वज्ञ तत्वज्ञान और नाटिका-शानी मात्राज्ञान देखता रहता है ॥ ४६॥ कामी पुरुप कोकशास्त्र, चेटकी चेटकमंत्र और यांत्रिक नाना प्रकार के यंत्र आदरपूर्वक देखता है॥५०॥हँसी करनेवाले को विनोद, उन्मत्त को नाना प्रकार के ढोंग और तामसी को मस्तपन अच्छा लगता है ॥ ५१ ॥ मूर्ख २६