पृष्ठ:दासबोध.pdf/२८४

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२०३ समास १.] जीवन्मुत्ता का देहान्त। परमार्थ-शान से समाधान मिला है, चित्त चैतन्य में लीन होता है और यह मालम हो जाता है, कि 'मैं वही मुख्य ' वस्तु ' ई. ॥ ८॥ इतना मालूम हो जाने पर, ज्ञानी शरीर को प्रारब्ध के भरोसे छोड़ देता है वोध से उसका संशय मिट जाता है और वह जान लेता है कि यह कलेवर मिथ्या है-सो चाहे अभी नाश हो जाय अथवा बना रहे ॥ ६ ॥ देह का मिथ्यापन जान लेने के कारण साधुओं की देह पवित्र होती है। अतएव, जहां उसका अन्त हो वही पुण्यभूमि है॥१०॥साधुओं के पधारने से तीर्थ भी पवित्र होते हैं; साधुओं से ही उनकी महिमा बढ़ती है। जिन तीर्थों में साधुनहीं रहते उन्हें पुण्यक्षेत्र नहीं कह सकते॥११॥यह विचार, कि किसी पुण्यनदी के तीर शरीरपात होना अच्छा है, अशानियों के लिए है। साधुओं के लिए इसकी कोई आवश्यकता नहीं; क्योंकि वे नित्यमुक्त ॥ १२॥ लोग इस सन्देह में रहते हैं कि उत्तरायण में मरना उत्तम है और दक्षिणायन में अधम है। पर साधु लोग इस संदेह में नहीं पड़ते ॥ १३ ॥ शुक्ल पक्ष में, उत्तरायण में, घर में, दीपक रहते समय, दिन में, और अंत में स्मरण रहते हुए, यदि देहान्त हो तो सद्गति मिलती है। ॥ १४॥ परन्तु योगी को इन बातों की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि वह पुण्यात्मा तो जीते ही जी मुक होकर पापपुण्य को तिलांजलि दे देता है ॥ १५॥ जिसका देहान्त अच्छी दशा में होता है और जो सुखपूर्वक देह त्यागता है उसके लिए अंज्ञानी लोग कहते हैं कि "यह भगवान् के पास पहुँचेगा ॥१६॥परन्तुं उनका यह मत विपरीत है। यह कल्पना करके, कि अन्त में भगवान् मिलता है, वे स्वयंअपनी हानि कर रहे हैं॥१७॥जीविता- वस्था में जब परमात्मा की भक्ति नहीं की और व्यर्थ ही आयु गवाँ दी, तव फिर अन्त में भगवान कैसे मिलेगा? अनाज का बीज तो बोया ही नहीं- जमेगा कैसे ? ॥१८॥ जव जन्मभर ईश्वर-भजन किया जाता है तभी मुक्ति मिलती है । जव व्यापार किया जाता है तभी नफा मिलता है ॥१६॥ यह कहावत तो सभी को मालूम होगी कि "दिये विना मिलता

  • अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ ५ ॥ आग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । . तत्र प्रयाता गच्छति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ २४ ॥ गीता, अ०८॥