पृष्ठ:दासबोध.pdf/२८६

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समास १०] जीवन्मुक्त का देहान्त । ६०५ श्राचरण अवश्य ही शृद्ध होता है, और अन्त में मोक्ष मिलता है ॥३७॥ सद्गुरु की सेवा ही परमार्थ का जन्मस्थान है; सद्गुरु-सेवा से श्राप ही आप समाधान मिलता है ॥ ३८ ॥ यह शरीर एक दिन नाश होते- वाला है; श्रतएव, तब तक, जन्म सुफलं कर लेना चाहिए । भजनभाव “से सद्गुरु का चित्त प्रसन्न करना चाहिए ॥ ३६॥ ऐसा एक दाता सद्- गुरु ही है, जो शरणागतों की चिंता ऐसे रखता है, जैसे माता, नाना यत्न करके, बालक का पालन-पोपण करती है ॥ ४०॥ श्रतएव, जिससे सद्गुरु की सेवा बन पड़ती है वही धन्य है । सद्गुरु को सेवा को छोड़ कर परम-शान्ति प्राप्त करने का अन्य उपाय नहीं है ॥४१-४२॥ यह वात जिसे मान्य न हो वह 'गुरुगीता' देखे ॥ ४३ ॥ उसमें महादेवजी ने पार्वती से सद्गुरु की महिमा अच्छी तरह वतलाई है । अतएव, सद्- गुरुचरणों की सेवा, सद्भाव से, करना चाहिए ॥४४॥ जो साधक इस अन्य में कहे हुए विवेक का मनन करता है उसे सत्य ज्ञान का निश्चय होता है ॥ ४५ ॥ जिस अन्य में अद्वैत-निरूपण किया गया है उसे प्राकृत कह कर उसकी उपेक्षा न करना चाहिए । श्रर्थ की दृष्टि से, उसे सत्य वेदान्त ही समझना चाहिए ॥ ४६॥ प्राकृत के द्वारा वेदांत मालूम होता है; सम्पूर्ण शास्त्रों की बातें उसमें मिल सकती हैं। उनसे चित्त परम शान्त होता है ॥ ४७ ॥ जिसमें शान के उपाय बताये गये हैं उसे 'प्राकृत' कहना हो न चाहिए; पर मूखों को यह कैसे मालूम हो ? " बन्दर क्या जाने अदरख का स्वाद!" ॥४८॥ अस्तु । जितना जिसका अधिकार है. उतना ही वह लेता है। परन्तु, (जैसे ) यद्यपि मोती सोप में होता है, तथापि उसे कोई नद्रवस्तु नहीं समझ सकता, (वैसे ही 'प्राकृतः' भाषा में कही गई वेदान्त की बातें भी किसीको क्षुद्र नहीं मानना चाहिए !)॥ ४६॥ जिसे श्रुति “ नेति, नेति" कहती है, उसके विषय में भाषा का महत्व चल नहीं सकता! परब्रह्म वास्तव में आदि-अंत-रहित और अनिर्वाच्य है ॥ ५० ॥ 5