पृष्ठ:दासबोध.pdf/२८७

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आठवाँ दशक । पहला समास--परमात्मा का निश्चय । ॥ श्रीराम ॥ अब, श्रोता लोगों को, सावधान होकर, शुद्ध ज्ञान का निरूपण सुनना चाहिए ॥१॥ नाना शास्त्रों को यथोलने के लिए सारी उम्र भी बस नहीं है, और यदि वे देखे भी जायँ, तो भी अंतःकरण में संशय की व्यथा बढ़ती ही जाती है ! ॥ २ ॥ संसार में अनेक बड़े बढ़े तीर्थ, कोई सुगम, कोई दुर्गस, कोई दुष्कर; परन्तु पुण्यदायक हैं ॥३॥ ऐसा कौन है जो ये सभी तीर्थ कर सकता हो ? यदि इतने सच तीर्थ किये जायँ तो सारी आयु भी बस नहीं है ॥४॥ अनेक प्रकार के जप, तप, दान, योग, साधन, इत्यादि सब केवल उसी परमात्मा के लिए करते हैं ॥ ५॥ यह वात सर्वसम्मत है कि, उस देवाधिदेव-परमात्मा-को, अनेक प्रकार से प्रयत्न करके, अवश्य ही प्राप्त करना चाहिए ॥ ६॥ उसी भगवान् को प्राप्त करने के लिए ये नाना पन्य और मत निकले हैं। परन्तु उसका स्वरूप कैसा है ? ॥ ७ ॥ आज-कल संसार में इतने देवता मान लिये गये ।। हैं कि उनकी गणना तो कोई कर ही नहीं सकता! किसी एक देवता का निश्चय नहीं होता ॥८॥ देवताओं के अनुसार, उपासना के भी अनेक भेद होगये हैं । जिसकी कामना जिससे एक बार पूर्ण होगई वह उसीको पकड़े रहता है!॥ ॥ जैसे बहुत से देवता हैं, चैसे ही उनके बहुत से भक्त भी हैं। वे अपनी अपनी इच्छा के अनुसार उन्हीं में नासत्ता हैं। तथा बहुत ऋषि हैं और उनके बहुत मत भी, अलग अलग हैं ॥१०॥ अतएव, इस बहुवगार में, एक का निश्चय नहीं होता । सब शास्त्र आपस में लड़ रहे हैं; परन्तु ठीक ठीक निर्णय नहीं होता। ॥ ११ ॥ अनेक शास्त्रों से अनेक भेद हैं। और मतमतान्तरों के विरोध की तो बात ही न पूछिये! अस्तु । इसी प्रकार का वाद-विवाद करते हुए न जाने कितने चले गये!॥ १२ ॥ हजारों में कोई एक, परमात्मा का विचार करता है; परन्तु, उसके के स्वरूप का, उसे भी पता नहीं चलता ॥ १३॥ परन्तु, यह कैसे कहते हो कि पता नहीं चलता "-पता चले कैसे-वहां तो अहंता लगी हुई है न ! उसी अहंता के कारण परमात्मा का दर्शन नहीं होता ॥ १४ ॥ - * मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥३॥ गीता, अ० ७ । 66