पृष्ठ:दासबोध.pdf/२९

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दालबोध। " CC समर्थ रामदागवामी वेः बन्धु श्रेष्ठ ने भी, गृहस्थाश्रम में रह कर, भक्तिमार्ग का बहुत प्रचार किया। उन्होंने " भक्तिरहस्य, सुगमउपाय ” और कुछ फुटकर कवितायें लिखा । जब उन्हें मालूम हुआ कि अब उनका अन्त समय समीप है तब उन्होंने एक पत्र लिख कर समर्थ के पास भेजा और अपनी अन्तिम भेट के लिए बुलाया । रामनवमी के उत्सव के कुछ दिन पहले ही इस वार समर्थ अपनी जन्मभूमि जाँव को गये और एक मास तक अपने बन्धु के निकट रह कर लौट आये। उनके लौट आने पर कुछ दिनों के बाद शाके १५९९ ( सन् १६७७ ई.) में श्रेष्ठ का स्वर्गवास हो गया और उनकी पत्नी अपने पति को गोद में लेकर सती हो गई। यह समाचार सुन कर समर्थ ने, एक शिष्य को भेज कर, श्रेष्ठ के दोनों पुत्रों को अपने पास बुला लिया। यह हाल जब शिवाजी महाराज ने सुना तब वे समर्थ के समीप आये और इच्छा प्रकट की कि, जाँच रियासत में और बहुत से गाँव लगाकर उसका स्थायी प्रबन्ध कर देना चाहिए। समर्थ ने कहा कि, अभी कोई जरूरत नहीं है; फिर देखा जायगा । इस पर शिवाजी वहुत दुःखित होकर बोले, जान पड़ता है, श्रीराम की सेवा करना मेरे भाग्य में नहीं लिखा । यह मुन कर समर्थ ने कहा, अच्छा अभी कुछ थोड़ा प्रबन्ध कर दो जिससे सम्प्रदाय का खर्च और श्रीराम के उत्सब प्रति वर्ष उचित रीति से होते रहें। आज्ञा पाने पर शिवाजी ने ३३ गाँव और प्रति वर्ष के लिए १२१ खंडी गल्ला लगा दिया। यह रियासत अभी तक श्रेष्ठ के वंशजों के अधिकार में है। हर साल कई उत्सव और सदा सर्वदा सन्त-समागम उसी रिया सत के सार्च से होता है। धन्य है श्रीशिवाजी महाराज के समान राजाओं का उदारता ! अस्तु । एक साल तक श्रेष्ठ के पुत्रों को अपने पास रख कर समर्थ ने उन्हें अनेक प्रकार. की शिक्षा दी और फिर घर भेज दिया । शाके १६०२ (सन् १६८०) चै० शु० १५ रविवार को शिवाजी महाराज स्वर्ग को पधारे । यह समाचार सुनकर समर्थ को अत्यन्त शोक हुआ । शोक क्यों न हो ? शिवाजी ही के लिए रामदासस्वामी का अवतार हुआ । शिवाजी स्वयं रुद्र या शिव के अवतार माने जाते हैं । शिवाजी और समर्थ का सम्बन्ध नैसर्गिक था । परस्पर एक दूसरे को सहायता मे, धर्मप्रचार और लोकोद्धार का कार्य पूर्ण करके स्थापना की। शिवाजी के वियोग के कारण समर्थ ने बाहर निकलना विलकुल छोड़ दिया। वे अपने कमरे में ही रह कर भगवत्- चिन्तन में भग्न रहते थे। सम्भाजी के राज्याभिषेक-उत्सव में श्रीसमर्थ ने खुयं न जाकर अपने एक महन्त को भेज दिया । कुछ दिनों के बाद सम्भाजी के घोर साहसिक कमों का हाल सुन कर उन्होंने एक उपदेशपूर्ण पत्र लिखा; यह पत्र बड़े महत्त्व का है। उसे देखने से समर्थ के राजनीति-सम्बन्धी ज्ञान का अच्छा परिचय मिलता है। परन्तु सम्भाजी महाराज उस समय कुसंगति में इस प्रकार फँस गये थे कि, उन्होंने रामर्थ के उपदेश से कोई लाभ नहीं उठाया ।