पृष्ठ:दासबोध.pdf/३००

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पमान ४] सूक्ष्म पंचमहाभूत । का लक्षण है, इस लिए आकाश में शनि भी है ॥ १८ ॥ श्रन, वायु और भाकाश में कृ वहत भेद नहीं है, क्योंकि घायु में भी श्राकाश ही की तरह स्तब्धता है। अतएच आकाश में जो स्तब्धता है वही 'वायु' का लक्षण है ॥ १६ ॥ अब रहा श्राकाश में आकाश-सो यह बतलाने की आवश्यशता ही नहीं है कि आकाश में आकाश है ही। श्रस्तु: यह सिद्ध होगया कि श्राकाश में पांचों महाभूत हैं ॥ २० ॥ स्थिरचित्त होकर क्रमसः यह सुनिये कि वायु में पंचभूत कैसे मिले हुए हैं ॥ २१ ॥ जिस प्रकार किती हलकी से भी हलकी वस्तु में जड़ता होती है उसी प्रकार वायु में भी जड़ता है; क्योंकि उसका झोंका लगने से वृक्ष गिर जाते है। और यही जड़ता पृथ्वी का लक्षण है; अतएव वायु में पृथ्वी है ॥ २२ ॥ २३ ॥ अथवा या कहिये कि वायु में जो शक्ति है वही उसमें पृथ्वी का लक्षण है ॥ २४ ॥ जैसे आग की छोटी से छोटी चिनगारी में भी कुछ न कुछ उप्णता होती ही है वैसे ही वायु में भी जड़ता ( पृथ्वी का अंश) सूक्ष्मरूप से ही है ॥ २५ ॥ अब, वायु में जो कोमलता है वही उसमें जल है और उसका जो कुछ भास है वही अग्नि का स्वरूप है तथा वायु में, चंचल रूप से, वायु तो स्वभाविक ही वर्तमान है ॥ २६ ॥ और, अवकाशरूप से आकाश वायु में सहज ही मिला हुआ है। इस प्रकार वायु में भी पांचो भूतों का होना साबित है ॥ २७ ॥ अच्छा, अब तेज में पांची भूत सुनिये; तेज में जो प्रखरता का भास है वही उसमें पृथ्वी है ॥ २८ ॥ और अग्नि का भास, जो मृदु जान पड़ता है, वही उसमें जल का अंश है। अव, यह बतलाने की आवश्यकता ही नहीं कि तेज में तेज तो स्वयं है ही ॥ २६ ॥ श्रव, अग्नि में जो चंचलता है वही वायु है; और जो स्तब्धता है वही श्राकाश है । इस प्रकार तेज में भी पंच- भूतों का अस्तित्व है ॥ ३०॥ अब 'आप' में पंचभूत देखिये वास्तव में मृदुता ही श्राप का लक्षण है और मृदुता में जो कठिनता का भास होता है वही जल में पृथ्वी का अंश है ॥.३१ ॥ श्रव, जल में जल तो है ही! इसके सिवाय मृदुता (जलांश) में तेज भी मृदु-रूप से भासता है और उसमें जो स्तब्धता होती है वही वायु है ॥ ३२ ॥ अव, जल में श्राकाश के बतलाने की जरूरत ही नहीं; क्योंकि वह तो स्वाभाविक ही सध में व्याप्त है । अस्तु । श्राप में भी पंचभूतों का होना स्पष्ट है॥३३॥ श्रव पृथ्वी में पंचभूतों को लीजिए; पृथ्वी में जो कठिनता है वही पृथ्वी में पृथ्वी का लक्षण है । उस कठिनता में जो मृदुता है वही पृथ्वी में आप है ॥ ३४ ॥ श्रय, पृथ्वी में जो कठिनता का भास है वही 'भास