पृष्ठ:दासबोध.pdf/३०४

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समास ५] स्थूल पंचमहाभूत। २२३ से व्यापार, उसीसे होते हैं ॥२६ ॥ ३०॥ जितना कुछ चलन, चलन, प्रस- रण, निरोधन, प्राकुंचन है वह सब चंचलरूपी 'वायु' ही है ॥ ३१ ॥ प्राण, अपान, व्यान, उदान, लमान ये पांच प्राण; और नाग, कर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय ये पांच उपप्राण, इत्यादि, जितना कुछ चलन है, वह सब वायु का लक्षण है। चन्द्र, सूर्य और तारागण भी आकाश में वायु के कारण ही स्थित हैं ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ अब 'आकाश' देखिये; जितना कुछ पोला, निर्मल, निश्चल और अव- काशरूप है उस सब को 'आकाश जानना चाहिए ॥ ३४ ॥ आकाश सब में व्यापक है; आकाश अनेक में एक है; और आकाश ही में शेप चारो भूत खेल रहे हैं ॥ ३५ ॥ आकाश सब भूतों में श्रेष्ठ है, वह सब से बड़ा है वह निराकार स्वरूप के समान है ॥ ३६॥ इस पर शिप्य ने शंका की कि, "जब दोनों का रूप समान ही है तब फिर आकाश ही को ब्रह्म क्यों न कहा जाय ? ॥ ३७॥ जब आकाश और ब्रह्म में कुछ भेद ही नहीं है तब फिर श्राकाश को स्वतःसिद्ध 'वस्तु' ही क्यों न कहें ? ॥ ३८ ॥ जैसे वस्तु' (ब्रह्म) अचल, अटल, निर्मल और निश्चल है वैसे ही आकाश भी है-वह केवल वस्तु ' के ही सदृश है" ॥ ३६॥ इस पर वक्ता उत्तर देता है।- वस्तु ' निर्गुण शाश्वत है; और आकाश में काम, क्रोध, शोक, मोह, भय, अज्ञान और शून्यत्व, ये सात प्रकार के, गुण शास्त्रों में कहे हैं । इसी कारण आकाश की भूतों में गणना हुई है और निर्गुण स्वरूप निर्विकार तथा निरुपम है ॥४०-४२॥ कांच से जड़ी हुई पृथ्वी और जल बिलकुल एक ही से मालूम होते हैं, परन्तु चतुर लोग जानते हैं कि यह कांच है, और यह जल है ॥ ४३ ॥ कहीं रुई के बीच में एक स्फटिक पत्थर पड़ गया था। लोगों ने जाना यह सब रुई ही है। एक दिन एक मनुप्य रुई के धोखे उस पर कृदा-उसका कपालमोक्ष (शिर फूटना) होगया। यह बात कपास से कैसे हो सकती है ? ॥४४॥ चावलों में सफेद कंकड़ कोई कोई चावल की ही तरह टेढ़े भी होते हैं-वे चावल चवाते समय जब दांत में पड़ जाते हैं तब मालूम होते हैं ॥ ४५ ॥ त्रिभाग (चूना, बालू और तागे का गारा)का कंकड़ त्रिभाग ही सा मालूम होता है। ढूँढ़ने से कठिनता के रूप में अलग देख पड़ता है ॥ ४६॥. गुड़ के समान ही गुड़-पत्थर होता है। परन्तु होता वह बिलकुल. कठोर है। नागबेल की लकड़ी और मुलहठी एक ही से होते हैं, पर चे एक नहीं कहे जा सकते ॥४७॥ सोना और सोनपीतल (मुलम्मादार पीतल ) दोनों बिलकुल एक ही से मालूम