पृष्ठ:दासबोध.pdf/३०७

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२२६ दासबोध । I दशक ८ जाता है वह फिर नहीं जुड़ता, परन्तु मनुष्य का यह हाल नहीं है-उसकी कुबुद्धि यदि एक बार निकाल डाली जाती है तो दूसरी बार फिर भी वह उसमें आ जाती है ॥६॥१०॥ मनुष्य को सिखाने से, एक बार उसका अवगुण चला जाता है। पर फिर पीछे श्रा जाता है; (लेकिन पाषाण का ऐसा हाल नहीं है-वह एक बार घड़ कर ठीक कर देने से सदा वैसाही बना रहता है,) इस लिए मनुष्य की अपेक्षा पाषाण बहुत अच्छा ठहरा ! ॥ ११ ॥ जिस मनुष्य का अवगुण छूटता ही नहीं उसे पाषाण से भी तुच्छ समझो-उससे तो पत्थर कोटिगुना अच्छा है ॥ १२ ॥ " पत्थर कोटिगुना क्यों " ? इसका भी लक्षण सुनिये:-॥ १३॥ माणिक, मोती, प्रवाल, वैदूर्य, हीरा, गोमेदमाणि, पारंस, सोमकान्त, सूर्यकान्त, इत्यादि अनेक बहुमूल्य पत्थर होते हैं, तथा नाना प्रकार की ओषधि-मणियां अत्यन्त उपयोगी होती हैं ॥ १४॥ १५ ॥ इनके अतिरिक्त और भी अच्छे पाषाण है; जो नाना तीर्थों में, वावड़ियों में, कुत्रों में लगे हैं अथवा, जो महादेव या विषणु की मूर्ति के रूप में पूजे जाते हैं ॥ १६ ॥ इस दृष्टि से, विचार करने पर, जान पड़ता है कि मनुष्य तो उन पत्थरों के सामने अत्यन्त तुच्छ है ॥ १७ ॥ अतएव, मनुष्य उक्त पत्थरों की बरा- बरी कदापि नहीं कर सकता! हां, दुश्चित्त और अभक्त लोगों को अंपवित्र और बेकाम पत्थरों की उपमा भले ही दे दीजिए 11 १८॥ · अंस्तु; अब यह कथन बस करो। यह ध्यान में रखना चाहिए कि दुश्चि- स्तता से हानि होती है और इसी कारण प्रपंच या परमार्थ, कुछ भी नहीं बनता ॥ १६॥ दुश्चित्तता से कार्य नाश होता है, चिंता आती है और सुनी हुई बात क्षणभर भी मन में नहीं रहती ॥ २०॥ दुश्चित्तता से हार होती है; जन्ममरण प्राप्त होता है और हानि होती है ॥ २१ ॥ दुश्चित्तता से साधक लोग साधन और भजन नहीं कर सकते और वे ज्ञान भी नहीं प्राप्त कर सकते ॥ २२ ॥ दुश्चित्तता से निश्चय नहीं होता, जय नहीं मिलता और दुश्चित्तता ही से स्वहित का क्षय होता है॥ २३ ॥ दुश्चित्त- पन से श्रवण नहीं बन पड़ता; विवरण नहीं बनता और प्राप्त किया हुआ निरूपण भी चला जाता है ॥२४॥ दुश्चित्त पुरुष ऊपर ऊपर से, देखने में तो स्थिर बैठा हुआ सा देख पड़ता है; पर वास्तव में, भीतर से, उसका मन ठिकाने नहीं रहता ॥ २५ ॥ दुश्चित्त मनुष्यों का समय इसी प्रकार कटता है जिस प्रकार, पागल, पिशाच से सताये हुए, अंधे, सूक और बहरें पुरुषों का समय जाता है ॥ २६ ॥ सावधानता होने पर भी ऐसे - पुरुषों को कुछ समझ नहीं पड़ता, श्रवण (कान) होने पर भी सुन नहीं