पृष्ठ:दासबोध.pdf/३१४

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परमात्मा का दर्शन। २३३ है। नवधा भकि से अनेको भक्त सुक्त हो चुके हैं ॥ ६ ॥ उस नव प्रकार की भक्ति में आत्मनिवेदन भचिमुख्य और श्रेष्ट है। उसका विचार स्वयं स्वानुभव से करना चाहिए ॥ ७ ॥ अपने ही अनुभव से अपने को निवेदन करना चाहिए-इसीको आत्मनिवेदन कहते हैं॥८॥जैसे महा- पूजा के अन्त में, अपनत्व का मोह छोड़ कर देवता पर मस्तक काट कर चढ़ा दिया जाता है वैले ही आत्मनिवेदन भक्ति में भी परमेश्वर में अपने अपनत्व को लीन कर देना होता है॥६॥ ऐसे भत्ता थोड़े होते हैं जो अपने को निवेदन करते हैं; और जो करते हैं, उन्हें परमात्मा तत्काल मुक्ति देता है ॥ १० ॥ इस पर श्रोता कहता है कि " अपने को कैसे निवेदन करें, कहां जाकर गिर पड़ें या देवता के सामने मस्तक काट के रख दें; क्या करें ?॥ ११ ॥ इसका उत्तर ध्यान देकर सुनियेः-॥ १२ ॥ आत्मनिवेदन का लक्षण यह है कि, पहले देखे कि मैं कौन हूं, इसके वाद फिर निर्गुण परमात्मा को पहचाने ॥ १३ ॥ इस प्रकार, 'परमात्मा का और भा'का खोज करने से, श्रात्मनिवेदन होता है। भक पर- मात्मा की शाश्वतता का अनुभव करता है ॥ १४ ॥ परमात्मा को पहचा- नते पहचानते वह उसीम तद्रप हो जाता है और परमात्मा, तथा सक्त में विलकत भिन्नता नहीं रहती ॥ १५ ॥ जोकि भक्त परमात्मा से 'विभक्ता नहीं होता, इसी लिए वह 'भसा' कहलाता है जैसे कि जिसे वन्धन नहीं होता वही मुक्त होता है-यह हमारा कयन शास्त्रोक है ! ॥ १६ ॥ जब हम परमात्मा और भक्त का सूल देखते हैं, तब जान पड़ता है कि, इनमें कोई भेद नहीं । ये दोनों एक ही है, और इस दृश्य जगत् से अलग हैं ॥ १७ ॥ परमात्मा में मिलने पर द्वैत नहीं रहता। 'परमात्मा' और 'भक्त' को भिन्नता का भेद मिट जाता है ॥ १८॥ श्रात्मनिवेदन के अंत में जो अभेद भक्ति होती है उसीको सत्य सायुज्यमुक्षिा जानना चाहिए ॥ १६ ॥ जो संतों के शरण जाता है; और अद्वैत निरूपण से बोध पाता है; (वह जरूर तद्रूप हो जाता है) वह यदि फिर अलग किया भी जाय तो भी नहीं होता। ॥२०॥ जैसे जो नदी समुद्र में मिल जाती है वह फिर अलग नहीं की जा सकती, और जो लोहा सोना बन जाता है उसमें फिर कालिमा नहीं आ सकती ॥ २१ ॥ वैसे ही जो भगवान् में मिल जाता है वह फिर अलग नहीं किया जा सकता। भक्त स्वयं परमात्मा हो जाता है। फिर वह विभक्त नहीं हो सकता ॥ २२ ॥ जो परमात्मा और भक्त की अनन्यता का अनुभव कर लेता है वही साधु मोक्षदायक ३०