पृष्ठ:दासबोध.pdf/३१८

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समान ] साधु-लक्षण। २३७ द? ॥ १॥ तयापि यह जानने के लिए कि, सञ्चा आत्मज्ञानी कौन है, यां पर, साधारण तौर पर, साधुओं के लक्षण बतलाये जाते हैं:-॥२॥ वास्तव में सिद्ध या साधु साक्षात् तत्स्वरूप ही है। सत्स्वरूप और सिद्धन्वरूप में कोई भेद नहीं है ॥ ३॥ जो सतस्वरूप ही होकर रहता है उसे सिद्ध कहते है-सिद्धस्वरूप ही में(ब्रह्मस्वरूप ही में)सिद्धपन शोभा देता है ॥ ४ ॥ जो स्वत:सिद्ध सत्स्वरूप वेदशास्त्रों में प्रसिद्ध है; उसीको सिद्ध कह सकते हैं-दूसरे को नहीं ॥ ५॥ तथापि साधकों को विवेक का ज्ञान होने के लिए कुछेक बतलाते हैं । सिद्ध-लक्षणों का कौतुक सुनिये ॥६॥ जब अन्तरस्थिति स्वरूपाकार हो जाती है तब काया का वर्ताव ऐसा ही रह जाता है जैसे स्वप्नावस्था की झूठी स्वप्नरचना!॥७॥. तथापि, सिद्धों के कुछ लक्षण बतलाता हूं, जिससे परमार्थ की मुख्य पह- चान मालूम हो जायः-॥८॥ साधु का मुख्य लक्षण यह है कि वह सदा स्वरूपानुसन्धान रखता है और लोगों में रह कर भी, लोगों से अलग रहता है ! ॥ ६॥ स्वरूप में दृष्टि लगते ही उसकी. संसार की चिंता टूट जाती है और अध्यात्म- निरूपण में ममता लग जाती है ॥ १०॥ यह है तो साधक का लक्षण; पर सिद्ध में यह होता है-साधक विना सिद्ध का लक्षण हो ही नहीं सकता॥११॥सिद्ध का यह लक्षण चतुरों को जान लेना चाहिए, कि सिद्ध लोग बाहर से साधक की तरह रहते पर भीतर स्वरूपाकार ॥१२॥ संदेहरहित साधन का होना ही सिद्धों का लक्षण है और उनके भीतर- बाहर श्रटन्न समाधान रहता है ॥ १३ ॥ जब अंतरस्थिति (भीतरी दशा) अचल हो जाती है तब वहां चंचलता का प्रवेश कैसे हो सकता है? स्वरूप में वृत्ति लगने से वह स्वरूप ही हो जाती है ॥ १४॥ ऐसी दशा होने पर, फिर 'वह' चलते हुए भी अचल है-चंचल होकर भी निश्चल . है और वह स्वयं' निश्चल है, किन्तु उसका' देह चंचल है । ॥ १५ ॥ जब वह स्वरूप में स्वरूप ही हो जाता है तब फिर चाहे वहं.पड़ा ही रहे, चाहे उठ कर भगे; पर तौभी, है 'वह' अचल ही! ॥.१६ ॥ यहां मुख्य कारण अंतरस्थिति है-अंतर में ही निवृत्ति चाहिए। जिसका अंतर (हृदय) भगवान् में लगा है वही साधु है ॥१७॥ बाहर (देहादि) चाहे जैसा हो: पर अंतर 'स्वरूप' में लगा हो-ये सब लक्षण साधु में स्वाभाविक ही देख पड़ते हैं ॥ १८ ॥ जिस प्रकार राज्य पाने पर राजकला सहज ही आ जाती है उसी प्रकार अंतःकरण 'स्वरूप' में लग जाने से ये सब लक्षण सहज ही आ जाते हैं ॥ १६ ॥ अन्यथा ।