पृष्ठ:दासबोध.pdf/३२

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प्रस्तावना। २१ कहते हैं-" सिद्ध वात को सिद्ध करने का यन करने से कोई लाभ नहीं होता। जब तक " दासबोध " ग्रंथ विद्यमान रहेगा और जव तक इतिहास में यह बात लिखी रहेगी कि मरहठों ने सबहवीं सदी में स्वतंत राज्यस्थापित किया था तब तक श्रीरामदास और शिव छत्रपति का सम्बन्ध फिर से सिद्ध करने की आवश्यकता, उन लोगों के सिवा जिनका चित्त अव्यवस्थित है (दिमाग बिगड़ गया है), और किसीको भी मालूम न होगी।" धुलिया की सत्कार्योत्तेजक सभा ने श्रीरामदास और शिवाजी के सम्बन्ध में बहुत सी ऐति- हासिक बातें प्रकाशित की हैं और वह इस विषय की खोज कर ही है। वह श्रीरामदास- स्वामी का वृहत् चरित्र, ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर और आधुनिक विवेचनपद्धति के अनुसार, थोड़े ही दिनों में प्रकाशित करनेवाली है। आशा है कि हिन्दीवालों को भी उक्त चरित्र से कुछ लाभ अवश्य होगा। जिस समय श्रीरामदासस्वामी लोकोद्धार करने के लिए कृष्णा नदी के किनारे पहुँच कर चाफल में निवास करने लगे उस समय वहाँ नरसोमलनाथ नाम के तहसीलदार रहते थे। उन्होंने समर्थ की योग्यता जान कर उनसे मंतोपदेश लिया। कुछ ही दिनों में वहाँ रामदासी संप्रदाय की बहुत वृद्धि होने लगी। धीरे धीरे यह समाचार शिवाजी को मालूम हुआ। उस समय शिवाजी की राजसत्ता महाराष्ट्र में खूब बढ़ रही थी। उन्होंने रायगढ़ का किला ले लिया था; प्रतापगढ़ में एक नया किला धनवा कर वहाँ भवानी देवी की मूर्ति स्थापित की थी। उन्होंने पूना को मुख्य स्थान बना कर, नासिक से करवीर तक का सारा प्रान्त, कोंकण का कुछ भाग जीत लिया था । यद्यपि इस प्रकार वे राज्यसम्पादन के कार्य में लगे थे तोभी संत-समागम की उन्हें विशेष रुचि थी। बालपन ही से साधु और संतजनों के विषय में पूज्यभाव होने के कारण वे साधुसमागम के लिए सदा उत्कण्ठित रहते थे । वे अपना राजकाज करते हुए भी विंच- वड, देहू, आलंदी आदि प्रसिद्ध स्थानों में साधुजनों के दर्शन को बार-बार जाया करते थे और उनका उपदेश श्रद्धायुक्त अन्तःकरण से सुनते थे। जहाँ जहाँ हरिभजन या कीर्तन होता था वहाँ वहाँ वे अवश्य जाते थे । उनकी माता . जिगाबाई ने उन्हें छोटेपन ही में अपने सनातनधर्म, शास्त्र, वेद, पुराण और वेदान्त आदि के गम्भीर तत्व और सिद्धान्त तथा शिक्षादायक कथाओं की शिक्षा दिलाई थी। इसलिए अपनी माता की शिक्षा और साधु-समागम के कारण उनके मन में अपने जीवन की सार्थकता के विषय में अनेक उच्च विचार भर गये थे । वे सदा इसी बात का चिन्तन करते रहते थे कि, जीवन की सार्थकता उत्तम रीति से कैसे की जाय । उन्होंने एक बार सुप्रसिद्ध साधु तुकाराम बावा से मंत्रोपदेश माँगा था; पर उन्होंने शिवाजी को श्रीरामदासस्वामी के शरण में जाने की आज्ञा दी। इस प्रकार मन की मुमुक्षावस्था में जब शिवाजी ने श्रीसमर्थ की साधुकीर्ति सुनी तव उन्हें उनके दर्शन की बहुत अभिलाषा हुई । इसलिए उन्होंने श्रीसमर्थ को एक पत्र भेज कर अपनी राज- धानी में बुलाया । परन्तु समर्थ वहाँ नहीं गये । उन्होंने शिवाजी के पत्र का उत्तर भेज दिया ।