पृष्ठ:दासबोध.pdf/३२०

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९ साधु-लक्षण। जानें, तो मन ही वहां उन्मन होगया है, इस कारण साधु जन सदा मातीत होते हैं ॥ २८ ॥ लाधु अद्वय 'वस्तु' होता है-वहां 'भय' का शिकाना कहां? परनाम निर्भय है और साधु भी उसीका रूप होता है ॥ ३९ ॥ तपव, साधु भयातीत, 'निर्भय' और 'शांत' होता है। सबका अंत हो जायगा पर साधु अनन्तरूप है ॥ ४० ॥ जो सत्यस्वरूप में अमर तो दुका उसे भय कैसे जान पड़ेगा ? श्रतएच, साधुजन निर्भय होते है॥ ४२ ॥ जहां चंद्रभेद नहीं है-सब आप ही अपना अभेदरूप है-वहां 'देवबुद्धि' का न्वेद कैसे उठ सकता है ? ॥ ४२ ॥ साधु पुरुप बुद्धि से निर्गुण का निश्चय कर लेता है और निर्गुण को कोई ले नहीं जा सकता- इल कारण साधुजनों को खेद' होने का कोई कारण ही नहीं ॥ ४३ ॥ सा स्वयं तो बिलकुल अकेला ही होता है, तब फिर 'स्वार्थ' किसका फरे? और जहां दृश्य (माया) है ही नहीं यहां 'स्वार्थ' के लिए ठौर ही नहीं है neel जब साधु स्वयं ही एक है, तब वहां दुःख और शोक कहां का ? और द्वैत के बिना 'अविवेक भी नहीं आ सकता ||२५|| परमार्थ की आशं' रखने से साधु की स्वार्थ-सम्बन्धी 'दुराशा' टूट जाती है अतएव, नैराश्य' तोला नी साबू को एक पहचान है ॥ ४६॥ साधु आकाश की तरह मृदु होता है, अतएव उसके वचनों में 'कठोरता' कहां से श्रा सकती है? ॥ १७ ॥ ब्रह्म स्वरूप के संयोग से.साधु स्वयं भी ब्रह्म स्वरूप ही हो जाता है, अतएव वह निरंतर वीतरागी (विषय प्रेम से रहित ) रहता है HLE | स्वरूपस्थिति आ जाने के कारण साधु देह की चिंता छोड़ देता है, इस कारण उसे होनहार की कोई चिंता नहीं रहती ॥४६॥ साधुओं की बुद्धि परब्रह्म स्वरूप में लीन रहती है, इस कारण उनको सम्पूर्ण 'उपाधि' टूट जाती है और वे निरुपाधि हो जाते हैं ॥ ५० ॥ साधु सदा परब्रह्म-स्वरूप में ही रहता है और परब्रह्मस्वरूप में किसी प्रकार के 'संग' की गति नहीं है, अतएव साधु 'मानापमान' की परवा नहीं करता ॥५१॥ अलक्ष में लक्ष लगाने के कारण, साधु परमदक्ष होता है। वह परमार्थ का पक्ष करना जानता है ॥ ५२ ॥ साधु स्वयं ब्रह्मस्वरूप होता है; और ब्रह्मस्वरूप में 'मल' की गति नहीं; अतएव, साधु 'निर्मल' होता है ॥५३॥ परन्तु साधु का मुख्य लक्षण यह है कि, वह, परब्रह्म स्वरूप में ही लीन रहना, अपना सब धर्मों से श्रेष्ठ धर्म समझता है-इसीको वह 'स्वधर्म समझता है!॥ ५४॥ साधु की संगति करने से स्वरूपस्थिति श्राप ही आप आ जाती है- और स्वरूपस्थिति प्रा.जाने से, साधु-लक्षण शरीर में आ जाते हैं ॥ ५५॥