पृष्ठ:दासबोध.pdf/३२४

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moment बधाशचभव। होती है ॥ १३ ॥ कोई कहता है कि, भोग छटता नहीं, और जन्म-मरण टता नहीं कोई कहता है कि, अज्ञान की लहरें बहुत है ।। ४४ ॥ कोई कहना है कि, जहां 'सर्व' ब्रह्म है वहां क्रियाकर्म कहां से श्राये? कोई करता है कि ऐसी अधर्म की बात न करना चाहिए ! ॥ १५ ॥कोई कहता है कि, 'सर्वनाश हो जाने पर जो कुछ बचता है वही ब्रह्मा है; कोई कहता है कि, इसका नाम समाधान नहीं है ॥ ४६॥ कोई कहता है कि. 'सर्व ब्रह्म' और 'केवल ब्रह्म' ये दोनों पूर्वपक्ष के भ्रम है-अनुभव का मर्म अलग है ॥४७॥ कोई कहता है कि यह नहीं हो सकता ।'चस्तु अनिर्वाच्य है । उसको बतलाते हुए वेदशासन भी मौन ही रहते हैं। ॥ ४॥ इतने पर, श्रोता पृच्छता है कि, तो फिर निश्चय क्या किया? क्योंकि सिद्धान्तमत से तो अनुभव को ठौर ही नहीं है- (अर्थात् जहां अनुभव का नाम लिया वहां द्वैत यावे ही गा!)॥४६॥ उत्तरः यह पहले ही बनला चुके हैं कि अनुभव प्रत्येक का अलग अलग है । अतः- एव अन उसमें कुछ भी नहीं हो सकता! ॥ ५० ॥ कोई साक्षत्व से त हैं और साक्षी को (दृश्य ले ) अलग ही बतलाते हैं । तथा स्वयं दृष्टा वन कर स्वानुभव की स्थिति में रहते हैं ॥ ५१ ॥ दृश्य से द्रष्टा अलग है। अलिप्तपन की रीति यह है कि, स्वानुभव-द्वारा साक्षत्व से स्वयं अलग रहते है ॥ ५२ ॥ जो सब पदार्थों का ज्ञाता है वह पदार्थ- मात्र से अलग है-इस अनुभव के होने से, देह में रह कर भी, सहज ही अलिप्तता आ जाती है ॥ ५३ ॥ कोई ज्ञाता स्वानुभव से ऐसा कहता है, कि सातत्व से वर्तना चाहिए और द्रष्टापन से, सब काम करते हुए भी, अलग रहना चाहिए ।। ५४ ॥ कोई कहता है कि भेद है ही नहीं-'वस्तु श्रादि ही से अभेद है-वहां द्रष्टा कहां से लाये ? ॥ ५५ ॥ जहां संब स्वाभाधिक शकर ही शक्कर है वहां से कडू क्या अलग करें ? इसी तरह जहां स्वानुभव से सारा ब्रह्म ही है वहां द्रष्टा कहां से आया ? ॥ ५६ ॥ प्रपंच और परब्रह्म अभेद हैं; भेदवादी इनमें भेद मानते हैं; परन्तु यह स्वानन्द, आत्मा ही दृश्याकार हुआ ॥ ५७ ॥ जैसे पिघला हुआ घी जम जाता है वैसे निर्गुण भी संगुण हो जाता है वहां द्रष्टापन, से, अलग क्या किया जाय ? ॥ ५॥ अर्थात् द्रष्टा और दृश्य सब, जब एक जगदीश ही है तब फिर द्रष्टापन के भेद की क्या आवश्यकता है? ॥ ५॥ किसीका. यह अनुभव है कि, यह सब दृश्याकार ब्रह्म ही है ॥ ६ ॥ एक दूसरा अनुभव इस प्रकार का है कि, जब सब में आत्मा ही पूर्ण है तव स्वयं भिन्न कहाँ वचा? ॥ ६१॥ अव तीसरा अनुभव सुनो ये