पृष्ठ:दासबोध.pdf/३२६

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समाध 10] वहुधा भानुभव। २४५ - . हो सकता । परमहा को तो स्वानुभव से, 'वस्तु -रूप होकर ही, देख सकते हैं ।। ७॥ रथार्थ में 'स्वयंवस्तु' ही है । यह कल्पना कभी न करना चाहिए कि मैं' मत हूं । साधु सदा यही वात बतलाते हैं शिप्रात्मा स्वयं तु ही है ॥७५ ॥ संतों ने यह मिथ्या निरूपण कहीं नहीं किया कि मैं 'मन है। तब फिर फिसके कथन के आधार पर यह माना जाय कि 'मैं' मन है ।। ७६ ॥ संत-वचन में भाव रखना ही शृद्ध स्वानुभव है। मन स्वाभाविक ही चंचल होता है। वह मैं नहीं है। किन्तु ' मैं स्वयं 'वस्तु' ही है ॥ ७७ ॥ जिसका अनुभव पाना है, वास्तव में वही निरवयव 'वस्तु' हम हैं और 'अपना' ही अनुभव सारे जगत् के लोग लेते हैं ! ॥ ७ ॥ लोभी पुरुप धन प्राप्त करते हुए स्वयं धनरूप हो जाता है। पर उस धन का भोग भाग्यवान् पुरुप आनन्द के साथ करते हैं ॥ ७९ ॥ देहबुद्धि छोड़ने से वास्तव में साधकों का भी यही हाल होता है। यही अनुभव की मुख्य बात है ॥ ८० ॥ ज्ञान का विवेक ऐसा है कि, स्वयं 'हम' और 'वस्तु, दोनों वास्तव में बिलकुल एक ही हैं ॥५१॥ यथामति मैंने यह श्रात्मज्ञान का निरूपण किया। श्रोता लोग न्यूनाधिक के लिए क्षमा करें।॥ २ ॥