पृष्ठ:दासबोध.pdf/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२ दालमोध। जिस पत्र का उद्देख किया है वह इतिहास-दृष्टि से बहुत महत्त्व का है। उसमें शिवाजी को समर्थ ने जो उपदेश किया है। यह ध्यान में रखने योग्य है । इसलिए उस पत्र के कुछ अंश का भावार्थ यहाँ देना आवश्यक है। समर्थ शिवाजी को लिखते है:- " इस समय भूमंडल में ऐसा कोई नहीं है जो धर्म की रक्षा करे। महाराष्ट्र-धर्म तुम्हारे ही कारण बचा है । यहाँ जो कुछ थोड़ा-बहुत धर्म देख पड़ता है और साधुजनों की रक्षा हो रही है वह सब तुम्हारे ही कारण है। तुम धन्य हो। तुमने दुष्टजनों का संहार किया है। वे लोग तुमसे डरते हैं। बहुतेरे जन तुम्हारे आश्रय में रहने लगे हैं। अव तुमको धर्मस्थापन का काम सम्हालना चाहिए। यह बात सच है कि तुमको राजकाज बहुत करना पड़ता है जिससे चित्तवृत्ति व्यग्र हो जाती है। ऐसी दशा में राजा और मंत्री का विचार एक होना चाहिए। यदि एकता न होगी तो कार्य-नाश होगा। सब लोगों को राजी रखना; भले बुरे की खूब जाँच करना; न्याय और नीति का कदापि त्याग न करना, लालच में कभी न फँसना, सदा सावधान रहना । हमारा वोलना स्पष्ट है इसलिए क्रोध न आने देना। जो कुछ हमने कहा है उसे उचित रीति से श्रवण करना। यदि सचमुच अंतःकरणपूर्वक काम करना हो तो हमारे वतलाये हुए मार्ग को स्वीकार करो, श्रीरामचन्द्रजी कृपा करेंगे; तुम्हारा कार्य सिद्ध होगा; तुम्हारे सारे मनोरथ पूर्ण होंगे । इस विषय में सन्देह विलकुल मत करना।" यह पत्र पढ़ कर शिवाजी के धार्मिक और निष्ठायुक्त अन्तःकरण में श्रीरामदासस्वामी के दर्शन की उत्कंठा और भी तीव्र होगई। तब वे अपने संग कुछ आदमी लेकर समर्थ के दर्शन को चाफल गये। परन्तु, समर्थ का दर्शन न हुआ; क्योंकि वे एक स्थान में न रह कर चाफल के आस-पास कृष्णा नदी के किनारे जंगल, दरी और खोरियों में विचरते रहते थे। महीपति ने अपने "संतविजय" में लिखा है कि इस प्रकार शिवाजी महाराज को कई बार निराश होना पड़ा। तोभी उन्होंने यन करना न छोड़ा। अन्त में एक दिन वे यह निश्चय करके घर से निकले कि जब तक समर्थ का दर्शन न होगा और उनका प्रसाद न मिलेगा तब तक भोजन न करूँगा । इस तरह दृढ़ निश्चय करके, समर्थ का पता लगाते हुए, चाफल के जंगल में भट- कते-भटकते जब बहुत विह्वल और आर्त होगये तब समर्थ के एक शिष्य-द्वारा उन्हें पता लगा कि समर्थ खड़ी के वाग में हैं। शिवाजी ने वहाँ जाकर दर्शन किया। दोनों की प्रेमपूर्ण वार्ता हुई । शाके १५७१, वैशाख शु० ९ के गुरुवार के दिन समर्थ ने शिवाजी को उपदेश-मंत्र दिया और 'दासबोध ' के तेरहवें दशक का 'लघुवोध' नामक छठचाँ समास अद्वैत ज्ञान बताने के लिए सुनाया । यह वात ऊपर कही गई है कि समर्थ एक स्थान में बहुत समय तक न रहते थे। कभी चाफल के मठ में रहते थे, कभी कृष्णा नदी के किनारे वन, पर्वतों की झाड़ियों में . रहते थे और कभी देशपर्यटन या तीर्थयात्रा करने को चले जाते थे। इस कारण शिवाजी अपने गुरु का दर्शन नित्य नियमपूर्वक नहीं कर सकते थे। उनकी यही इच्छा