पृष्ठ:दासबोध.pdf/३३०

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समान २ प्रात्म-शान। २४ चानिया तक्यांश को देखने पर चाच्यांश रह ही कैले सकता है? ॥२२॥ सर्वन और माया-विरहित विमलब्रह्म, इन दो के प्रतिपादन करनेवाले दो पक्ष हैं, पर ये पक्ष सिर्फ बोलने ही भर के लिए हैं । लक्ष्यांश का मर्म मालूम हो जाने पर-(परब्रह्म वास्तव में क्या है, इसका ज्ञान हो जाने पर)-बोलना (वाच्यांश) रहता ही नहीं और न ये दोनों पक्ष ही रहते हैं।॥ २३ ॥ 'सर्व' और 'विमल' दोनों पक्ष वाच्यांश ही में रह जाते हैं-वे बोलने के आगे जाते ही नहीं-और लक्ष्यांश में लज्ञ रखने से पक्षपात नहीं रहता ॥ २४ ॥ इस लक्ष्यांश का अनुभव करना चाहिए-यहां बोलने का (वाच्यांश) का काम ही नहीं है । मुख्य अनुभव की पहचान में बोलना कहां से आया! ॥ २५ ॥ जहां पर परा, पश्यति, मध्यमा और वैखरी चारो वाणी कुंठित हो जाती हैं वहां शब्द- कला-कौशल का काम ही क्या है? ॥ २६ ॥ भला देखो तो, जब शब्द बोलते ही नाश हो जाता है तब उसमें शाश्वतता कहां से आ सकती है? प्रत्यक्ष के लिए कोई प्रमाण नहीं है; देखो! ॥२७॥ शब्द प्रत्यक्ष नश्वर -है; इसी कारण पक्षपात नहीं होता। (पक्ष नहीं रहते) अनुभव में 'सर्व' और 'विमल' का भेद ही नहीं है ॥ २८ ॥ अनुभव का लक्षण सुनो । अनुभव का अर्थ है अनन्य हो जाना । अब, अनन्य का लक्षण जैसा है, वह सुनोः-॥२६॥ जहां अन्य नहीं है वही अनन्य है, जैसे श्रात्मनिवेदन। संग-भंग होने के बाद (द्वैत नष्ट होने पर) आत्मा आत्मपन से बना ही रहता है॥३०॥ यात्मा 'मैं 'आत्मपन 'न होना ही निस्संग का लक्षण है । यह बात हम वाच्यांश से इसी लिए वतलाते हैं ताकि मालूम हो जाय ॥ ३१ ॥ अन्यथा यह कैसे हो सकता है कि लक्ष्यांश, वाच्यांश से बताया जाय । सहावाक्य के विवरण से प्राप ही आप मालूम होने लगता है ॥३२॥ तत्वविवरय करने से, निर्गुण ब्रह्म का खोज लगाने से और स्वतः अपने को देखने से, सव मालूम होता है ॥ ३३ ॥ बिना बोले ही उसका, मनन (विचार) करना चाहिए-और मनन करते ही रहना चाहिए । इसी लिए तो महापुरुष को अनबोल ही रहना शोभा देता है* ॥ ३४॥ यह तो प्रत्यक्ष अनुभव की बात है कि, उसके बतलाने में शब्द -

  • ब्रह्म आनिर्वाच्य होने के कारण सत्पुरुष ,बोल कर नहीं बताते । सच है; “ गुरोस्तु

मौनं व्याख्यानम् ।