पृष्ठ:दासबोध.pdf/३३१

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२५० दासबोध । दशक 1 भी निःशब्द होता है और श्रुति " नेति नेति" कहती है ॥ ३५॥ प्रतीति हो जाने पर संशय रखना प्रत्यक्ष दुरभिमान है; तो फिर अव यही कहना चाहिए कि, “मैं अज्ञान हूं; मुझे कुछ भी नहीं मालूम ! ॥ ३६ ॥ मैं मिथ्या; मेरा बोलना मिथ्या, मैं मिथ्या; मेरा चालना मिथ्या ! 'मैं- मेरा' सभी मिथ्या और काल्पनिक है ! ॥ ३७॥ मुझे-मैपन को-विल- कुल ही ठौर नहीं है; मेरा सारा बोलना व्यर्थ है । मेरा बोलना प्रकृति का स्वभाव है, और प्रकृति मिथ्या है !" ॥ ३८॥ जहां प्रकृति और पुरुप दोनों का निरसन हो जाता है वहां मैंपन का रहना कव सम्भव है ? ॥ ३६ ॥ जहां कुछ भी नहीं बचा वहां विशेप क्या बतलाया जाय ? मुहँ से यह कहने से, कि "मैंने मौनव्रत धारण किया है," जिस प्रकार मौन्य नष्ट हो जाता है उसी प्रकार यदि सुहँ से कोई अनुभव बतलाने लगे तो समझ लेना चाहिए कि अभी इसे अनुभव हुआ ही नहीं! ॥४०॥ अब मौन्य भंग न करना चाहिए । करके भी कुछ न करना चाहिए (क्रिया-दोप-विरहित क्रिया करना चाहिए) और विवेकबल से, रह कर भी, विलकुल न रहना चाहिए !॥४१॥ तीसरा समास-ज्ञानी का जन्म-मरण नहीं । ॥ श्रीराम ।। इस पर श्रोता लोग शंका करते हैं कि, यह कैसा ब्रह्मज्ञान है ? रह करके भी कुछ न रहना कैसे हो सकता है ? ॥१॥ सब कुछ करके भी अकर्ता, सब कुछ भोग करके भी अभोक्ता और सब में अलिप्तता होना कैसे सम्भव है ? ॥२॥ तुम जो यह कहते हो कि, योगी भोग करके भी अभोक्ता रहता है तो, इस हिसाब से, क्या वह स्वर्ग और नर्क भोग कर भी अभोक्ता ही बना रहता है ? * ॥ ३॥ जन्म-मृत्यु भोगता ही रहता

  • श्रोता इस स्थान में, बिलकुल अनसमझ वन कर प्रश्न करता है:-आप कहते हैं कि

योगी सब करके भी अकर्ता और सब भोग कर भी अभोक्ता है, तो फिर पापाचरण करने वालों के लिए अंकुश कहीं रहा ही नहीं; क्योंकि पाप करके भी न करने के समान हुआ। तब तो कहना चाहिए कि, पाप-पुण्य, सुकृत-दुष्कृत सब समान ही हो गये ! स्वर्ग जाकर भी न जाने के समान है, और नर्क जाकर भी न जाने के समान है !