पृष्ठ:दासबोध.pdf/३३२

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समास:] ज्ञानी का जन्म-मरण नहीं। २५१ है तो भी योगी, उसे भोग करके भी, अभोगी बना रहता है ! और यातना का भी उसके लिए ऐसा ही हाल होता है ! ॥४॥ योगेश्वर कुट कर भी नहीं कुटता, रोकर भी नहीं रोता और कांख कर भी नहीं कांखता ! ॥५॥ जन्म न होकर भी बह जन्न पाता है, पतित न होकर भी पतित होता है और यातना न होकर भी नाना प्रकार की यातनाएं वह भोगता है ! ॥६॥ इस प्रकार श्रोताओं ने शंका की और ऊटपटांग मार्ग का स्वीकार किया। श्रव, इसका समाधान करना चाहिए ॥ ७॥ वक्ता कहता है कि, अच्छा, सावधान हो जाओ। तुम ठीक कहते हो; पर तुम्हें अपने ही अनुभव से ऐसा होता है ॥ ८॥ जिसका जैसा अनुभव है वह वैसा बोलता है। परन्तु सामर्थ्य या सम्पदा विना धनवान बनना निरर्थक है! ॥ ॥ जिसके पास ज्ञान-संपदा नहीं है, वह अज्ञान-दरिद्रता के कारण, केवल शब्दज्ञान से, सदा आपदा भोगता ही रहता है ॥१०॥ योगी- वर को योगीही पहचानता है, ज्ञानेश्वर को ज्ञानी ही पहचानता है और महाचतुर को चतुर ही पहचानता है॥११॥अनुभवी को अनुभवी ही जानता है, अलिप्त को अलिप्त हो जानता है और विदेही को विदेही जानता है ॥ १२ ॥ यह कहने की जरूरत नहीं है कि, जो पुरुष बद्ध के समान सिद्ध और सिद्ध के समान बद्ध की भावना करता है वह मूर्ख अर्थात् अज्ञान है ॥ १३ ॥ जिसे भूत लगता है वह देहधारी होता है और पंचाक्षरी झाड़नेवाला-भी देहधारी होता है; पर दोनों को एक ही समान कैसे कह सकते हैं ? ॥ १४॥ इसी तरह जो पुरुष, अज्ञान या पतित और ज्ञानी या जीवन्मुका, दोनों को समान मानता है उसे बुद्धि- मान कैसे कहे ? ॥१५॥ अब ये दृष्टान्त बस करो! अब कुछ अनुभव की बात बतलाता हूं; कुछ देर सावधान होकर सुनियेः-॥ १६ ॥ जो ज्ञान से गुप्त (लीन होता है, जो विवेक से प्रात्मस्वरूप में लय होता है और अनन्य हो जाने के कारण-अलग नहीं रहता है ॥ १७ ॥ उसे कैसे प्राप्त करें ? क्योंकि जब हम उसे ढूंढ़ने जाते हैं तब हम भी स्वयं वही हो जाते हैं और वही' हो जाने से कुछ कहने की आवश्य- कता नहीं रहती ॥ १८॥ देह में देखने से दिखता नहीं और तत्व से शोधने पर भासता नहीं। ब्रह्म है; पर, कुछ भी करें, पहचाना नहीं जाता ॥ १६॥ देखने में तो देहधारी है; पर भीतर निर्विकारी है तब फिर उसको, ऊपर ऊपर से देखने पर, कैसे पहचान सकते है ? ॥ २० ॥