पृष्ठ:दासबोध.pdf/३४१

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दासबोध। [ दशक ९ यहां यह आशंका उठती है कि, भूतों में जानपन किलने देखा है। पंचमहाभूतों में तो जानपन का होना कभी सुना भी नहीं गया ! ॥१८॥ वास्तव में, जानपन चलनशक्ति को कहते हैं, और चलनशक्ति वायु का लक्षण है; तथा वायु में सारे गुणों का होना पीछे वतला हो चुके हैं ॥ १६ ॥ इस तरह, जान-अजान-पन से मिश्रित सारे पंचभूत वर्तते हैं। अतएव, भूतों में जानपन अवश्य है ॥ २० ॥ हां, यह जरूर है कि, वह कहीं दिखता है और कहीं नहीं दिखता; पर वह भूतों में व्याप्त अवश्य है । उसकी स्थूलता या सूक्ष्मता तीक्ष्ण बुद्धि से भासती है ॥ २१ ॥ भूतों में भूत सन कर पंचभूत बने हैं। वास्तव में देखने से कोई स्थूल और कोई सूक्ष्म भासते हैं ॥ २२ ॥ जिस प्रकार निरोध वायु का भास नहीं होता उसी प्रकार जानएन भी नहीं देख पड़ता । देख नहीं पड़ता पर वह भूतरूप में है जरूर ॥ २३ ॥ काठ से जिस प्रकार अग्नि देख नहीं पड़ता, निरुद्ध वायु जिस प्रकार भास नहीं होता, उसी प्रकार भूतों में जानपन भी एकाएक नहीं लख पड़ता ॥ २४ ॥ भूत अलग अलग दिखते है; पर वास्तव में वे मिले हुए है । बहुत चतुरता के साथ अनुभव प्राप्त करना चाहिए ॥ २५ ॥ ब्रह्म से सूलमाया, सूलमाया से गुणमाया और गुणमाया से त्रिगुण हुए हैं ॥ २६ ॥ इसके वाद, गुणों से, पंचमहाभूत हुए हैं । उन सब का रूप बतला दिया गया है ॥ २७ ॥ श्रोता कहता है. कि, यह कभी नहीं हो सकता कि, आकाश शुरण से हुआ है । शब्द को अाकाश का गुण मानना ही मिथ्या है ॥ २८ ॥ इस पर वक्ता कुछ रूठ कर कहता है-वतलाते कुछ हैं और भावना करता है कुछ च्यर्थ के लिए गायाजाल बढ़ाता है ! अब इस पागल को कौन समझावे ? ॥२६॥ सिखाने ले तो मालूम नहीं होता, समझाने से भी नहीं समझता! यह मन्दरूप (शिष्य ) दृष्टान्त से तकता भी नहीं करता! ॥३०॥ यह बतला दिया है कि, एक भूत से दूसरा भूत बड़ा है; अब भूतों से बड़ा और स्वतंत्र कौन है ? ॥ ३१ ॥ जब सूलमाया हो पंचभौ- विक है तब और कौन सा विवेक रह गया! हां, सूलमाया से परे एक निर्गुण ब्रह्म है ॥,३२ ॥ उस ब्रह्म में होनेवाली सूलमाया का जब हम विचार करते हैं तब जान पड़ता है कि, वुह पंचभूतों और त्रिगुणों की बनी हुई है ॥ ३३॥ चार भूत विकारवंत है; पर आकाश निर्विकार है। आकाश की जो भूतों में गिनती हुई है सो उपाधि के कारण से ॥ ३४ ॥ पिंड में व्यापक होने के कारण जिस प्रकार, 'जीव' नाम हुआ है, और ब्रह्मांड, में व्यापक होने के कारण जैसे 'शिव' नाम पड़ा है, वैसे ही श्राकाशं . .