पृष्ठ:दासबोध.pdf/३४२

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पंचभूत और भिगुण। भी उपाधि से कारग भूत कहलाता है।॥३५॥ उपाधि में पड़ गया है और माता के नाम देखने से भासना-बस, इसी कारण, आकाश भूतल्प । आकाश, शेष चारी भूनों की उपाधि से, पोलेपन के में, भासत है। परन्तु परब्रह्म निराभास है । वास्तव में, उपाधिरहित प्रमामान जी परब्रह्म है ॥ ३७ ।। जानपन, जानपन और इन दोनों की मध्यम स्थिति यही तीन गुणों का लक्षण है । यहां निगुण भी रूप-सहित मतला दिये गये ॥३८॥ ज्या ज्या प्रकृति विस्तृत होती गई त्या त्या और का और ही बनता गया। जो विकारवंतही है उसका क्या नियन ? ॥३६॥ काला और सफेद मिलाने से नीला बनता है और काला- पीला मिशान से हरा बनता है ॥ ४० ॥ इस प्रकार, नाना तरह के रंग पिलाने से जैसे परिवर्तन होता जाता है वैसे ही यह विकारी दृश्य (प्रकृति) भी एक दन्तरे के मिलने से नाना रूप धरता है ॥ ११ ॥ एक ही पानी माना रंगा ले. तरंग के रूप में, उठने लगता है। इस पलटने के विकार का कहां तक विचार किया जाय ? ॥ ४२ ॥ एक पानी ही के विकार यदि ये जायें तो अपार है ! फिर पांच भूतों का विस्तार तो चौरासी लाख योनियों के रूप में है ! ॥४३॥ नाना देहों का बीज पानी ही है। सारे लोग उदकसे ही हुए हैं। कीड़ा, चीटी, श्वापदादिक, सव उदक से ही होते है ॥ ४॥ रज और बीर्य की गणना पानी ही में है और उसी पानी का यह शरीर है । नख, दंत, और जितनी हन्द्रियां हैं, वे भी सब पानी ही से बनती है ॥ १५॥ जड़ों के बारीक तंतुओं के द्वारा में पानी भरता रहता है और उसी उदक से वृक्षमात्र का विस्तार होता है ॥ ४६॥ श्राम के वृक्ष में मौर पानी ही के कारण ग्राता है और सारे वृक्ष पानी ही के कारण खूब फल-फूल से लद जाते हैं ॥ १७ ॥ वृन्न की पेड़ी, या कंधा, फोड़ कर फल यदि ढूंढा जाय तो नहीं मिल सकता वहां गीली छाल ही रहती है ॥ १८ ॥ जड़ से लेकर, ऊपर फुगसी तक, उसके भीतर फल नहीं देख पड़ता; फिर फल प्राता कहां से है ? उसमें फल जलरूप से ही रहता है। यह वात चतुर लोग विवेक से जानते हैं ॥ ४६॥ वही जल जब ऊपर चढ़ता है तब सब वृक्ष फल- कूल से लद जाते हैं इस प्रकार कुछ का कुछ ही बनता है ! ॥ ५० ॥ इसी प्रकार पत्र, पुष्प और फल वनते हैं । बार बार वहीं वात कहां तक वंतलाई जाय ? सूक्ष्म दृष्टि से सब स्पष्ट हो जाता है ! ॥ ५१ ॥ भूतों का विकार कहां तक बतलाऊं ? क्षण क्षण में बदलते हैं ! नाना वर्णों के रूप में कुछ के कुछ ही बनते हैं!! ॥ ५२ ॥ त्रिगुण और पंचभूतों (अर्थात् 1