पृष्ठ:दासबोध.pdf/३५०

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ब्रह्म में ब्रह्मांड। क्योंकि यह नारा होता है। अब यह बड़ी पंचायत या पड़ी-श्रोता लोग समझे कैले । ॥ ११॥ यह सुन कर श्रोता लोग उत्कंठित हुए और बोले कि.हम लोग सावधान है ! अस्तु । अब प्रलंगानुसार उचित उत्तर देता हूं:- ||१२॥ देविय. आकाश में दीपक जलाया गया परन्तु यह कैसे हो सकता है कि, वन आकाश से अलग रखा जाय ?॥१३ ॥ श्राप, तेज अथवा वायु याकाश को हटा नहीं सकते । क्योंकि वह सबन है-चंचल नहीं है !!२४॥ पृथ्वी यद्यपि कठिन है, तथापि अाकाश ने उसको चलनी बना डाला है-वह समपूर्ण पृथ्वी में व्याप्त हो रहा है ! ॥ १५॥ सच तो यह है कि, जितना कुछ जड़ है उतना सब नाश होता है और श्राकाश जैना का नेसा बना रहता है-वह अचल है ॥१६॥ जो कुछ भिन्न रह कर देग्यन उसीको आकाश कहते हैं और अभिन्न होकर देखने से प्राकाश ही परबल है (अर्थात् आकाश और परब्रह्म में यही अन्तर है कि, अाकाश नो भिन्न रहन पर भी देख पड़ता है; पर परब्रह्म तभी देख पड़ता है जब तप हो जावे) ॥ १७ ॥ सारांश, आकाश अचल है। उसका अंद्र मालम नहीं होता । जो कुछ ब्रह्म का सा भासता है उसको धाकारा कहना चाहिए ॥ १८ ॥ वह निर्गुण ब्रह्म सा भासता है और कल्पना करने से श्रनुमान में प्राता है, इसी लिए उसे आकाश कहते है-कल्पना के कारण वह आकाश कहाता है ॥१६॥ कल्पना को जितना कुछ भास भासता है वह आकाश ही है-परन्तु ब्रह्म निराभास और निर्वि- कल्प है ॥ २०॥ आकाश स्वाभाविक ही शेष चारो भूतों में भरा हुआ है। वह भासनेवाला ब्रह्मांश है ॥ २१ ॥ जो प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है, और नाश होता है, उसे अचल कैसे कह सकते हैं ? यह गगन को भेद नहीं सकता ॥ २२ ॥ पृथ्वी के न रहने पर पानी बचता है, पानी के न रहने पर अग्नि बचता है और अग्नि के वुझने पर वायु रहता है-वह भी अन्त में नाश हो जाता है ॥ २३ ॥ जो मिथ्या है वह आता है और जाता है; परन्तु इससे कुछ यह नहीं हो सकता कि, सत्य का भंग हो जाय ॥२४॥ भ्रम के कारण वह प्रत्यक्ष दिखता है; पर विचार करने पर उसमें कुछ भी नहीं है। इस भ्रममूल जगत् को सत्य कैसे कह सकते हैं? ॥२५॥ भ्रम का खोज लगाने से जान पड़ता है कि, वह कुछ है ही नहीं; तब फिर भेदा किराने और किसको ? यदि कहा जाय कि, भ्रम ने भेदा तो कैसे हो सकता है, वह तो खुद ही मिथ्या है ॥ २६ ॥ भ्रम का रूप जव मिश्या प्रतीत हो चुका, तब फिर सुख से कहते रहो कि, उसने भेदा है ! जो स्वयं मिथ्या है उसने जो कुछ किया वह भी वैसा ही होना