पृष्ठ:दासबोध.pdf/३५१

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२७० दासबोध । [ दशक ९ चाहिए ! ॥ २७ ॥ जो स्वयं मिथ्या है वह चाहे जो कर डाले, परन्तु इससे हमारा क्या जाता है ? चतुर मनुष्य मिथ्या के कर्तृत्व को मिथ्या ही समझते हैं।॥२८॥जैसे सागर में खसखस का दाना, वैसे ही परब्रह्म में यह सारा दृश्य ! मति के अनुसार हृदय में मति का प्रकाश पड़ता है ॥ २६ ॥ मति विशाल करने से आकाश को भी हाथ में ले सकते हैं और ब्रह्मांड कैथा सा मालूम होने लगता है ! ॥३०॥ वृत्ति उससे भी अधिक विशाल करने से ब्रह्मांड बेर सा जान पड़ता है और केवल ब्रह्माकार हो जाने पर कुछ भी नहीं रहता ॥ ३१ ॥ विवेक-द्वारा अपने को अमर्यादित विशाल करने से ब्रह्मांड बट-बीज के समान देख पड़ने लगता है ॥३२॥ उससे भी अधिक विस्तीर्ण होने पर यह ब्रह्मांड बटवीज के कोट्यांश के समान (सूक्ष्म ) जान पड़ता है, और बिलकुल परिपूर्ण हो जाने पर, कुछ नहीं रहता ॥ ३३ ॥ परन्तु जो, भ्रम के कारण, छोटा बन कर अपने को सिर्फ देहधारी मान लेता है, वह ब्रह्मांड को अपने हाथ में कैसे ला सकता है ? ॥ ३४ ॥ वृत्ति को इतना बढ़ाना चाहिए कि, उसे फैला कर विलकुल रखना ही न चाहिए और उसको पूर्णब्रह्म के चारो ओर से पूर देना चाहिए! ३५ ॥ भला देखो तो, कि यदि एक जव भर सोना लाकर उससे ब्रह्मांड मढ़ा जाय तो वास्तव में क्या दशा होगी! ॥३६ ॥ (जिस प्रकार जव भर सोने का पत्र बना कर कोई यदि ब्रह्मांड मढ़ना चाहे तो वह पत्र फट जायगा-सोना लय हो जायगा, उसी प्रकार) जब वृत्ति से ब्रह्म का कोई आकलन करना चाहता है तवं वृत्ति फट कर लय हो जाती है और केवल निर्गुण आत्मा जैसा का तैसा बच रहता है! ॥ ३७॥ इतने से श्राशंका मिट जाती है । श्रोता लोगो ! संदेह न रखो । यदि शंका हो तो विवेक से उसका निरसन करो ! ॥ ३८॥ विवेक से सन्देह मिटता है, समाधान होता है और विवेक से, आत्मनिवेदन होने पर, मोक्ष मिलता है ॥३६॥ जो मोक्ष की भी उपेक्षा करता है, (क्योंकि अपेक्षा करना पूर्वपक्ष ही है), विचार से पूर्वपक्ष को अलग कर देता है और सिद्धांत वस्तु (आत्मा) को प्रत्यक्ष प्रत्यय में लाता है, उसके लिए अन्य प्रमाण की क्या आवश्यकता है ? ॥ ४०॥ ये प्रतीति के वचन, सारासार का विचार करने पर, मालूम होते हैं। मनन के अध्यास से लाक्षात्कार होता है और परम शान्ति मिलती है ! ॥४१॥