पृष्ठ:दासबोध.pdf/३५२

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मात्मन्धिति। . दसवाँ समास-आत्मास्थिति। ॥ श्रीराम ।। चना की मूर्ति को मन्दिर के भीतर होती है और कौवा मन्दिर की मोदी पर जा बैठता है। परन्तु इससे क्या वह कौवा देवता से बड़ा हो ॥2॥ राजनन्दिर में समा लगी होती है और बन्दर उस सन्ति के पक खंभे पर जा बैठता है। परन्तु इससे क्या बत् बन्दर सभा दो सकता है? ॥२॥ ब्राह्मण स्नान करके पानी से अलग हो जाना और बगुला पानी ही में बना रहता है। परन्तु उसे ब्राह्मण के सनान पन्निन कैसे मान सकते हैं ? ॥ ३ ॥ ब्राह्मणों में कोई नियमपूर्वक रहा है, कोई अन्यबन्धित रहते हैं और कुत्ता सदा ध्यानस्थ ही रहता है। परन्तु क्या इन कुत्ता ब्राह्मण की बराबरी कर सकता है ? ॥ ४ ॥ मान ली गई वाला एकाग्न ध्यान नहीं जानता और विलार ध्यान लगाने में बहुत चतुर होता है; पर ब्राह्मण के समान श्रेष्ट उसे कौन कह सकता है ? ॥ ५ ॥ ब्राह्मण भेद-अभेद का विचार रखता है; मनिका सब को बराबर समझती है। पर इससे यह कैसे कहा जा सकता है कि, मनिका को शानबोध होगया है ? ॥६॥ मान लो, कोई नीच मनुष्य उन्न श्रेणी के वस्त्र पहने हुए है और कोई राजा नंगे बदन बैठा है; परन्तु चतुर पुरुप उन दोनों को तुरन्त ही पहचान लेगा॥७॥ सारांश, बाहरी रूप चाहे जितना बनाया जावे; परन्तु वह ढोंग ही कहलायेगा। यहां तो मुख्य पात्म-निष्टा चाहिए ॥ ८॥ जिसने सांसारिक प्रतिष्टा तो बहुत प्राप्त कर ली है; परन्तु आत्मजागृति नहीं की है-जो परमात्मा को भूला हुआ है-वह आत्मघातकी है ! ॥ ६॥ देव का भजन करने से देवलोक, पितरों को भजने से पितृलोक और भूतों को भजने से भूतलोक मिलता है ॥ १० ॥ जो जिसको भजते हैं वे उस लोक को जाते हैं । निर्गुण को भजने से स्वयं निर्गुण होते हैं ॥११॥ निर्गुण का भजन यह है, कि निर्गुण में अनन्य होकर रहना चाहिए । अनन्य होने से अवश्य धन्यता प्राप्त होती है ॥ १२ ॥ सम्पूर्ण कर्मों का फल यही है कि, एक परमात्मा को पहचानना चाहिए और यह विचार करना चाहिए कि, 'हम' कौन