पृष्ठ:दासबोध.pdf/३५३

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२७२ दासबोध। [दशक ९ ? हैं ॥ १३॥ निराकार परमात्मा का अनुभव करने से देहाभिमान नहीं रहता और यह निश्चय आ जाता है कि, "हम वही हैं" ॥१४॥ उका दशा आ जाने पर, सन्देह के लिए जगह नहीं रहती, परमात्मा में अनन्यता हो जाती है और देह की भावना का पता नहीं लगता ॥१५॥ उस अवस्था में सिद्धान्त और साधन सिर्फ भ्रममात्र रह जाते हैं। सुक्त के लिए साधम, इत्यादि के बन्धन की क्या जरूरत है? ॥ १६ ॥ क्योंकि साधन के द्वारा जो कुछ साध्य करना है वह तो वह (मुक्त) स्वयं ही है । अव साधक बनने की आवश्यकता नहीं रही। ॥ १७ ॥ जो कुम्हार राजा होगया वह अब गधे क्यों रखे ? कुम्हारपन की धरा- उठाई से अब उसे क्या प्रयोजन है ? ॥ १८ ॥ इसी प्रकार, साध्य वस्तु प्राप्त हो जाने पर, सम्पूर्ण वृत्ति-भावना और साधन प्रयत्न नहीं रहते ॥१६॥ उस दशा में साधन से क्या सिद्ध किया जाय? नेस से क्या फल प्राप्त किया जाय ? जब वह (मुक्त) स्वयं 'वस्तु' ही होगया तब फिर क्यों भटकना चाहिए ? ॥२०॥ देह तो पंचभूतों की बनी हुई है और जीव ब्रह्म का अंश है-सो भी परमात्मा में लीन हो सकता है ॥ २१॥ अतएव, 'मैपन' यह बीच में यों ही आ गया है । वास्तव में विचार करने पर यह कुछ नहीं है। . पंचमहाभूतों का निरसन हो जाने पर, निखिल आत्मा रह जाता है ॥ २२ ॥ आत्मा आत्मपन से जीव जीवपन से है, और माया माया- पन से विस्तृत है ॥ २३ ॥ इस प्रकार सब कुछ है, और 'हम' भी कोई एक है । इन सब को खोज करके जो देखता है चही ज्ञानी है ॥ २४ ॥ जो सव का खोज करना जानता है; पर 'अपने' को देखना नहीं जानता उस ज्ञानी की वृत्ति एकदेशीय रहती है-व्यापक नहीं होती ॥ २५ ॥ ऐसी वृत्ति का जब हम विचार करते हैं तो जान पड़ता है कि, वास्तव में वह कुछ नहीं है, क्योंकि प्रकृति का निरसन करने पर कुछ विकार- वन्त ( पदार्थ) टिक नहीं सकता ॥ २६ ॥ यदि कुछ टिक सकता है, तो वह केवल निर्गुण ही है, और विचार करने पर वही 'हम' है। यह परमार्थ की बड़ी भारी पहचान है ॥ २७ ॥ उस अवस्था में यह विवेक नहीं है कि, 'फल' अलग हो और अलग हो-वहां 'फल और 'हम' एक ही हो जाते हैं ॥ २८ ॥ मान लो कि, कोई भिखारी राजा होगया, और उसे यह अनुभव भी हो रहा है कि, मैं राजा हूं। अंब वह भीख क्यों मांगे? जो भिखारी हो वही भीख मांगे! ॥२६॥ वेद, शास्त्र और पुराण जिसका वर्णन कर रहे हैं तथा अनेक सिद्ध और 7