पृष्ठ:दासबोध.pdf/३६

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प्रस्तावना। R4 कृपा का फल है । इस प्रकार वार्तालाप करते हुए समर्थ की दृष्टि समीप पड़े हुए एक पत्थर की ओर गई । उस पत्थर को देख कर समर्थ ने कहा कि इस पत्थर को एक वेलदार से अभी तुड़वा डालो । शिवाजी की आज्ञा पाकर एक वेलदार उस पत्थर को तोड़ने लगा । समर्थ ने कहा इसमें बहुत धक्का न लगने पावे और दो टुकड़े वरावर करो । पत्थर के दो टुकड़े होते ही भीतर के पोले भाग से कुछ पानी और एक जीवित मेंढकी निकल पड़ी! यह चमत्कार देख कर सवको परम आश्चर्य मालूम हुआ। समर्थ ने कहा, " शिबवा! तुम्हारी योग्यता बहुत बड़ी है और तुम्हारी लीला अगाध है । देखो, ऐसी आश्चर्यकारक वात किससे हो सकती है?" शिवाजी ने कहा, “ इसमें मेरा क्या है ?” समर्थ ने कहा, " क्यों नहीं ? तुम्हारे सिवा और कर्ता कौन है? तुम्हारे विना जीवों का पालन और कौन कर सकता है?" शिवाजी महाराज अपने मन में समझ गये और बोले " मुझ पामर से कुछ नहीं हो सकता । इस दास को क्षमा कीजिए।" समर्थ ने कहा, “ मैं क्षमा करने ही के लिए यहाँ इस समय आया हूँ। परन्तु इतना बतला देना आवश्यक है कि भैया, तुम उस सरकार ( राम ) के बड़े नौकर हो । तुम्हारे हाथ से बह औरों को देता है। इतनी बात से तुम्हें इस प्रकार का अभिमान कभी न करना चाहिए।" यह सुन कर शिवाजी महाराज को बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उन्होंने, समर्थ के चरणों पर गिर कर, चार बार क्षमा मांगी । इसी शिक्षादायक चमत्कार के ऊपर एक चित्र तैयार किया गया है। एक दिन सज्जनगढ़ में भोजन के बाद समर्थ शिष्य-मंडली के प्रश्नों का उत्तर देते हुए आसन पर बैठे थे। इतने में सहज उन्हें अपने शरीर पर एक चट्टा उठा हुआ देख पड़ा। उसे देख कर समर्थ को स्मरण हुआ कि हमारी माता ने, हमारे लिए, देवीजी को सोने के पुष्प अर्पण करने का संकल्प किया था । वह संकल्प पूरा नहीं हुआ । अतएव प्रतापगढ़ पर, जहाँ शिवाजी ने देवी की स्थापना की थी, समर्थ देवीजी को स्वर्णपुष्प अर्पण करने को गये, वहाँ समर्थ ने देवीजी की जो स्तुति की है उसमें उनके आत्मचरित का भी कुछ उल्लेख है। अन्तिम बार पद्यों में शिवाजी के सम्बन्ध में जो प्रार्थना की है वह ध्यान में रखने योग्य है। उसका भावार्थ यह है, “ हे भाता, मेरी सिर्फ एक प्रार्थना है, यदि वरदान देना है तो यही वरदान दे कि जिसका तू अभिमान रखती है और जो सर्वथैव तेरा है उस शिवाजी की रक्षा कर । उसको हमारे देखते ही देखते वैभव के शिखर पर चढ़ा दे। मैंने सुना है कि आज तक तूने अनेक दुष्टों का संहार किया है; परन्तु, अब इस समय उस वात की प्रतीति मुझे करा दे। सब देवगण हम लोगों को भूल से गये हैं । तू अव हम लोगों के खत्व की कितनी परीक्षा लेगी! हे देवी! तू अपने भक्तों का मनोरथ शीघ्र पूर्ण कर; मैं अलन्त आतुर हो गया हूँ; इसलिए क्षमा कर और मेरी इच्छा सफल कर। धन्य है शिवाजी महाराज को! जिनकी ऐश्वर्यवृद्धि के लिए उनके सद्गुरु समर्थ देवी की इस तरह प्रार्थना करते हैं। इससे अधिक और कौन बात समर्थ और शिवाजी के पारस्परिक सम्बन्ध में -- "