पृष्ठ:दासबोध.pdf/३६०

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उन्नत्ति का विस्तार । २७६ चौथा समास-उत्पत्ति का विस्तार। ॥ श्रीराम ॥ जन हम उत्पत्ति की ओर ध्यान देते हैं तब स्पष्ट मालूम होता है कि, न्य से मनुष्य और पशु से पशु उपजते हैं ॥१॥ वंचर, भूचर, वन- चर, जलचर, आदि नाना प्रकार के शरीर, शरीर से ही होते हैं ॥२॥ प्रत्यन के लिए प्रमाण, निश्चय के सामने अनुमान और सरल मार्ग होते शप मी टेढ़े-मेढ़े जंगल के मार्ग की क्या आवश्यकता है ? ॥ ३ ॥ विप- रीत से विपरीत होते हैं। पर कहलात व शरीर ही है-शरीर विना उत्पनि हो ही नहीं सकती ॥ ४॥ तो फिर यह उत्पत्ति हुई कैसे? काहे की और किसने बनाई ? और जिसने बनाई उसकी देह किसने निर्माण की ? ॥२॥ ऐसा विचार करने पर तो बहुत दूर निकल जाना होता है । परन्तु श्रादि में शरीर कैसे बना और किसने, किस पदार्थ का और पन्न, उमृन किया ? ॥ ६ ॥ ऐसी यह पिछली अाशंका रह गई थी, सो सुने ! प्रतानि ते जाने पर फिर आशंका उठाने की कोई आवश्यकता नहीं ॥ ७ ॥ प्रतीति ही मुख्य है, परन्तु मूर्ख यह वात नहीं समझता । वास्तव में प्रतीति की वातों पर ही विश्वास होता है || 5॥ ब्रह्म में जो मूलमाया होती है वहीं, आगे चल कर, अष्टधा प्रकृति कहलाती है। पंचभूतों में और त्रिगुणों में मूलमाया मिली हुई होती है ॥ ६ ॥ वह मूलमाया घायुस्वरूप है; और वायु में जो चेतना का रूप है वही इच्छा है; पर इसका आरोप ब्रह्म पर नहीं पाता ॥ १० ॥ तथापि ब्रहा में इच्छा करने का आरोप यदि मान भी लिया जाय तो वह व्यर्थ है; क्योंकि, ब्रह्म निर्गुण और शब्दातीत है ॥ ११ ॥ श्रात्मा निर्गुण वस्तु ब्रह्म है । नाम- मात्र जितना है सब भ्रम है। यदि ब्रह्म में कल्पना करके उपाधि लगा दी जाय तो वह लग कैसे सकती है ? ॥ १२॥ तथापि, यदि ब्रह्म में अारोप लगाया भी जाय तो वह ऐसा ही है कि, जैसे आकाश को पत्थर मारा जाय । परन्तु इससे श्राकाश टूट फूट कैसे सकता है ? ॥ १३ ॥ उसी प्रकार निर्विकार ब्रह्म में विकार लगाना व्यर्थ है। विकार का नाश है और निर्विकार शाश्वत, जैसा का तैसा, बना रहता है ॥ १४ ॥ अब अनुभव की बात सुनो। इसे जान कर निश्चय करना चाहिए। इसीसे अनुभव पर जय मिलता है . ॥ १५॥ ब्रह्म में समीररूप जो मूल- माया है उसमें जो चेतना है वही ईश्वर है, उसीको ईश्वर और सर्वेश्वर