पृष्ठ:दासबोध.pdf/३६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उत्पत्ति का विस्तार। मनुष्यों की गाड़ी विद्या (इंद्रजाल), राज्ञलों की आडम्बरी विद्या और ग्राम की मृष्टि-विद्या होती है ॥ ३४॥ कुछ मनुष्यों की, उससे भी विशेष सन की और उससे भी विशेष ब्रह्मा की सृष्टि-विद्या है ॥ ३५ ॥ का माना और कोई अशाता प्राणी वनाये जाते हैं, वेद प्रकट करके, उदके हारा, वे प्राणी मार्ग में लगाये जाते है-इस प्रकार ब्रह्मा यह सृष्टि निमन करता है ॥३६॥ इसके बाद शरीरों से शरीर बनते जाते हैं, चिकार से सृष्टि बढ़ती जाती है और इस प्रकार सब शरीर निर्माण होते ३७ ॥ इनने से श्राशंका मिट जाती है-यह मालम हो जाता है कि, सारी सृष्टि फैसे विस्तृत हुई, और विचार करने से ठीक ठीक अनुभव में भर जाती है ॥ ३८ ॥ इस प्रकार ब्रह्मा तो सृष्टि रचता है, अब आगे श्रोता लोगों को यह वर्णन सुनना चाहिए कि, विष्णु उसका प्रतिपाल कैन करता है:-॥३६॥ विप का मूलरूप सत्वगुण, चेतनता या ज्ञान है । यह सूक्ष्म रूप अटरनता है । इसके द्वारा सन प्राणियों की रक्षा होती है। यह विभा का सूक्ष्म रूप, स्कूल शरीर धारण करके, दुष्टों का संहार करता है ॥ २०॥ नाना अवतार धरने, दुष्टों का संहार करने और धर्मस्थापन करने के लिए विष्णु का जन्म होता है ॥४१॥धर्मस्थापन करनेवाले पुरुप भी विष्णा का अवतार हैं । उनके सिवाय जो अभक्त और दुर्जन हैं ये सहज ही राक्षसों की गणना में श्रा जाते हैं !॥ ४२ ॥ अब, जो प्राणी पैदा होते हैं वे चैतन्य न रहने पर नाश हो जाते हैं और इस प्रकार रुद्र तमोगुण से उनका संहार करता है ॥ ४३ ॥ रुद्र का पूर्ण कोप होने पर सम्पूर्ण सृष्टि का संहार हो जायगा-उस समय सारा ब्रह्मांड ही भस्म हो जायगा ॥ ४४ ॥ यह उत्पत्ति, स्थिति और संहार का वर्णन श्रोताओं को ध्यान में रखना चाहिए ॥ ४५ ॥ श्रव अगले समास में कल्पान्तं के संहार का वर्णन किया जायगा । पांच प्रलयों का पहचाननेवाला ही झादी हो सकता है ॥ ४६॥

  • परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ ८॥ (गीता, अ० ४।)