भ्रम-निरूपण। १५. पूर्य की प्रवरना बढ़ती है, चारो ओर कोलाहल मचता है और मेन के सिर धड़ाधड़ टूटते हैं ॥ १६ ॥ अमरावती, सत्यलोक, कंट, कैलाल, श्रादि जितने लोक हैं, लन भस्म हो जाते हैं ! ॥१७॥ सारा मेर ढह पड़ता है-उसकी महिमा ही समाप्त हो जाती है और देवसमुदाय वायुचक्र में घूमने लगता है ! ॥ १८ ॥ धरती के भस्म हो जाने पर मुसलाधार पानी बरसता है और पलसर में पृथ्वी जल में गल जाती है ॥ १६ ॥ इसके बाद सिर्फ पानी ही पानी रह जाता है-उसे भी इति शोए लेता है और फिर अमर्यादित अग्निज्वाला एकत्रित होती है ॥ २० ॥ समुद्र का वड़वानल, शिवनेत्र का नेत्रानल, सप्तकंचुकी ब्रह्मांड ला आवर्णनल, सूर्य और विद्युल्लता, इतने लब, अग्नि एकत्रित होते हैं, इस कारण देवत्ता देह छोड़ देते हैं और पूर्वरूप से प्रभंजन (वायु) में मिल जाते हैं ॥ २१ ॥ २२ ॥ वह घायु अनि को झड़पता है, अग्नि एक- दम बुझ जाता है और वायु स्वच्छन्दता से परब्रह्म में दौड़ता है ॥ २३ ॥ जैन्ले घुया श्राकाश में फैल कर नष्ट हो जाता है वैसा ही हाल उस सस्य समीर (वायु) का होता है । वहुत में थोड़े का नाश कहा ही हुना है ॥ २४ ॥ वायु का लय होते ही सूक्ष्म भूत, त्रिगुण और ईश्वर निर्विकल्प में लीन होकर अपना अपना अधिष्ठान छोड़ देते हैं ॥ २५ ॥ उस समय जानपन नहीं रहता; जगज्ज्योति का लय हो जाता है-शुद्ध, सार, निराकार स्वरूपस्थिति रह जाती है ॥ २६ ॥ जितना कुछ नाम-रूप है। सब प्रकृति के कारण है-प्रकृति के न रहने पर बोलना कैसे हो सकता है ? ॥ २७ ॥ प्रकृति के रहते हुए ही विवेक करना विवेक प्रलय कहलाता है। ये पांचो प्रलय अच्छी तरह बतला दिये ॥२८॥ छठवाँ समास-भ्रम-निरूपण । ॥ श्रीराम ।। ऊपर उत्पत्ति, स्थिति और संहार का वृत्तान्त बतलाया गया; परन्तु निर्गुण, निराकार परमात्मा उसके बाद भी जैसा का तैसा बना रहता है
- प्रकृति और पुरुष; अर्थात् मूलमाया ।