पृष्ठ:दासबोध.pdf/३६५

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२८४ दासबोध। [ दशक १० ॥१॥ होने, बर्तने और जाने का सम्बन्ध उस परमात्मा से नहीं है; वह आदि, मध्य और अंत में; सदा, एकसा रहता है ॥२॥ परब्रह्म बना ही रहता है; बीच ही में यह भ्रम (सृष्टि-भ्रम) भासता है । यह भासता है; पर कालान्तर में सब नाश हो जाता है ॥ ३ ॥ उत्पत्ति, स्थिति और संहार बीच में अखंड रीति से होते जाते हैं। पर आगे, अंत में, सब का प्रलय होता है ॥४॥ परन्तु, जिसमें विवेक है वह पहले ही से जानता है-वह, सारासार विचार के कारण; इस उत्पत्ति- स्थिति-लय का हाल पहले ही से जानता है और ऐसे ही पुरुष को ज्ञानी कहते हैं ॥ ५ ॥ जहां बहुत से भ्रमिष्ट जमा हैं वहां एक समझदार पुरुष क्या कर सकता है ? इस सृष्टि में ऐसे पुरुष बहुत थोड़े हैं जो समझदार हैं ॥ ६ ॥ उन समझदारों का मुख्य लक्षण यह है कि ऐसे महापुरुष भ्रम से अलग रहते हैं ॥७॥ जो भ्रम में न फंसा हो. उसे मन में पह- चान लेना चाहिए । अव भ्रम का हाल बतलाते हैं। सुनो ॥८॥ एक परब्रह्म परिपूर्ण सरा हुअा है-वह विकारयुक्त कभी नहीं हो सकता-उसे छोड़ कर और जितना कुछ भास है सब भ्रमरूप है ॥ ६॥ जिन त्रिगुण और पंचभूतों का (अष्टधा प्रकृति का) प्रलय होता है वह सब भ्रमरूप ही है ॥ १० ॥ मैं, तू, उपासना और ईश्वर-भाव भी निश्चय करके भ्रम ही है ॥ ११ ॥ भ्रमेणाहं भ्रमेण त्वं भ्रमेणोपासका जनाः । भ्रमेणेश्वरभावत्वं भ्रममूलमिदं जगत् ॥ १॥ इस कारण यह सृष्टि, भासमान होने पर भी, सारी भ्रमरूप ही है। इसमें जो विचारवान हैं वही धन्य है ॥ १२ ॥ अब भ्रम का विचार अत्यंत ही स्पष्ट करता हूं और दृष्टान्त-द्वारा श्रोताओं को सम ॥ १३ ॥ दूर देश में भ्रमण करते हुए यदि अपने को दिशाभ्रम हो जावे या अपने कुटुम्बियों को न पहचान सकें तो इसका नाम भ्रम है ॥ १४ ॥ अथवा नशे के द्रव्य (भांग, धतूरा, आदि) सेवन करने से एक के अनेक भासने लगें, या भूतों के लगने से जो नाना व्यथाएं होती हैं उनको भ्रम कहते हैं ॥ १५॥ दशावतार का नाटक खेलते समय पुरुषों का स्त्री मालूम होना, बाजीगरी का खेल अथवा योंही यदि अन्तःकरण में कोई संदेह पैठ जाय तो इसका नाम है भ्रम ॥ १६ ॥ किसी वस्तु की रखी हुई जगह को भूल जाना, चलते चलते रास्ता भूल जाना अथवा शहर में भटकते-फिरना भ्रम है ॥ १७ ॥ अपने पास रहते हुए भी कोई वस्तु