पृष्ठ:दासबोध.pdf/३७३

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२६२ दासबोध। [ दशक १० 1 आत्मज्ञान का अभ्यास करने से सब कर्मों का खंडन हो जाता है-यह विलकुल प्रत्यक्ष, अनुभव की बात है-इसमें कुछ भी संदेह नहीं ॥ २३ ॥ यह कभी नहीं हो सकता कि, ज्ञान के बिना कर्म का खंडन हो जाय। इसी प्रकार यह भी असम्भव है कि, सद्गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त हो जाय॥२४॥ इस लिए सद्गुरु करना चाहिए-सत्संग ढूंढ़ कर उसके शरण जाना चाहिए और अन्तःकरण में तत्वज्ञान का मनन करना चाहिए ॥२५॥ तत्व में तत्व निकल जाने से वास्तव में स्वयं जो 'आप' है वही रह जाता है-इस प्रकार से अनन्यभाव हो जाने पर सहज ही सार्थकता होती है ॥ २६ ॥ विना विचारे जो किया जाता है वह व्यर्थ जाता है, इस लिए पहले विचार में प्रवृत्त होना चाहिए॥२७॥जो विचार करता है वही पुरुप है और जो विचार नहीं करता वह पशु है-इस प्रकार के भगवद्वचन जगह जगह पाये जाते हैं ॥ २८॥ सिद्धान्त निश्चित करने के लिए पूर्वपक्ष उड़ाना पड़ता है; और इसी निरूपण से साधकों को सत्य ज्ञान पर विश्वास आता है ॥ २६ ॥ श्रवण, मनन, निदिध्यास और प्रतीति करने से विश्वास पाता है और फिर प्रत्यक्ष अनुभव होने में प्रयास नहीं पड़ता ॥३०॥ दसवाँ समास-निश्चल और चंचल। ॥ श्रीराम ॥ ब्रह्म आकाश के समान है-वह बहुत बड़ा, ऊंचा, विस्तीर्ण, निर्गुण, निर्मल, निश्चल और सर्व काल प्रकाशित है ॥१॥ उसे परमात्मा कहते हैं और भी न कितने उसके नाम हैं; वह श्रादि-अंत में जैसा का तैसा बना रहता है ॥२ ॥ वह अनन्तरूप से सर्वत्र सघन फैला हुश्रा है और निराभास है ॥३॥ पाताल में अथवा अंतराल में, चारों श्रोर, कहीं भी उसका अंत नहीं है । कल्पान्तकाल में अथवा सर्वकाल में वह संचित ही रहता है ॥ ४ ॥ ऐसा कुछ एक अचंचल है-उस अचं. चल में जो चंचल भासती है उसके भी बहुत से नाम है; वह त्रिविधा है ॥ ५ ॥ बिना देखे नाम रखना और पहचान बतलाना एक विचित्र बात है; तथापि जानने के लिए वैसा करना पड़ता है ॥ ६ ॥ मूलमाया; मूलप्रकृति, मूलपुरुप, शिव-शन्तिः, इत्यादि अनेक नाम हैं ॥ ७ ॥ परन्तु जो नाम जिसे रखा गया है उसे पहले पहचानना चाहिए। विना प्रतीति