पृष्ठ:दासबोध.pdf/३७७

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२६६ दासबोध। [ दशक १० है ॥ ५५ ॥ माया-रूप पाप के नष्ट होने से पुण्यरूप परब्रह्म बच रहता है और उसमें अनन्य होते ही स्वयं भी नामातीत हो जाते हैं ॥ ५६ ॥ 'हम' स्वतःसिद्ध 'वस्तु' है-वहां देहसम्बन्ध नहीं है । इतना हो जाने पर पाप के ढेर स्वयं भस्म हो जाते हैं ॥ ५७ ॥ ब्रह्मज्ञान के बिना अनेक साधन करना व्यर्थ परिश्रम है । नाना पापों का क्षालन कैसे हो सकता है ? ॥ ५८ ॥ यह शरीर पाप ( दृश्य या माया) का बना हुआ है और आगे भी, (माया को सत्य मानने के कारण) पाप ही एकत्र होते है । भीतर रोग होने पर ऊपर ऊपर उपचार करने से क्या होता है ? ॥५६॥ अनेक क्षेत्रों में मुड़ाते हैं; अनेक तीर्थों में इसे (शरीर को ) दण्ड देते हैं; जगह जगह नाना प्रकार के निग्रह से इसे खंडन करते हैं; अनेक भांति की मिट्टियों से इसे घिसते हैं; तप्त मुद्रा से दागते हैं। इस प्रकार ऊपर ऊपर से चाहे जितना इसे कष्ट दिया जाय, तथापि यह कुछ शुद्ध थोड़े ही हो सकता है ? ॥ ६० ॥ ६१ ॥ चाहे गोबर के गोले निगले जायँ, गोमूत्र की धारे पी जायँ; अथवा रुद्राक्ष या काष्टमणि की चाहे जितनी माला पहनी जायें-इस प्रकार से, ऊपर ऊपर, चाहे जितना वेष बनाया जाय; पर यदि भीतर पाप भरा है तो उसके दूर करने के लिए आत्म- ज्ञान ही चाहिए ! ॥ ६२॥ ६३ ॥ अनेक प्रकार के व्रत, दान, योग, तीर्थाटन, इत्यादि, सब से करोड़गुना अधिक आत्मज्ञान की महिमा है ॥ ६४ ॥ जो पुरुप सदा आत्मज्ञान का विचार करता है उसके पुण्य की सीमा नहीं है । उसके पास ले दुष्ट पाप की बाधा दूर हो जाती है ॥ ६५ ॥ वेदशास्त्र में जो सत्यस्वरूप कहा है वही ऐसे ज्ञानी का भी रूप है । उसे अनुपम पुण्यवान् और असीम सुकृती समझना चाहिए ॥ ६६ ॥ ये अनुभव की बातें हैं-श्रात्मदृष्टि से अनुभव करना चाहिए और अनु- भव से अलग रह कर कष्टी न होना चाहिए ॥ ६७ ॥ ऐ अनुभववाले लोगो ! बिना अनुभव के सारा शोक है; इस लिए रघुनाथकृपा से निश्चयात्मक अनुभव बना रहे ! ॥ ६८॥