पृष्ठ:दासबोध.pdf/३८१

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३०० दासबोध। [ दशक ११ दोनों समाप्त हो जाते हैं ॥४२॥ अलक्ष में लक्ष लीन हो जाता है; सिद्धान्त में पूर्वपक्ष का लय हो जाता है; और अप्रत्यक्ष में प्रत्यक्ष (दृश्य), रह कर भी, नहीं रहता ॥ ४३ ॥ अर्थात् मायिक उपाधि रहते हुए ही, स्थरूपाकार वृत्ति होने का नाम सहज समाधि है। श्रवण से निश्चय की बुद्धि बढ़ानी चाहिये ॥४४॥ दूसरा समास-सृष्टिक्रम। ॥ श्रीराम ॥ एक निश्चल है, एक चंचल है । चंचल में सब फंसे हुए हैं और जो निश्चल है वह जैसा का तैसा निश्चल ही है ॥१॥ ऐसा लाखों में कोई एक है जो निश्चल का विवेक करता है । निश्चल के समान जो निश्चया- त्मक है वह निश्चल ही है ॥ २॥ ऐसे बहुत लोग हैं जो निश्चल की तो बातें करते हैं, परन्तु चंचल की तरफ दौड़ते हैं । चंचलचक्र से निकल जानेवाले थोड़े ही हैं ॥ ३॥ चंचल में चंचल जन्मता है, चंचल ही में बढ़ता है तथा जन्म भर सारा चंचल ही प्रतिविम्वित होता है ॥४॥ सारी पृथ्वी चंचल की ओर जा रही है, जितना कुछ करना धरना है सब चंचल ही में होता है। ऐसा कौन है जो चंचल को छोड़ कर निश्चल की ओर दुलता हो ? ॥ ५॥ चंचल कुछ निश्चल नहीं हो सकता, और निश्चल कदापि चल नहीं सकता-यह बात नित्यानित्य के विवेक से लोगों को कुछ समझ पड़ती है ॥ ६॥ थोड़ा समझने से निश्चय नहीं होता और संशय बना रहता है ॥७॥ परन्तु संशय, अनुमान और भ्रम इत्यादि की आपत्ति सिर्फ चंचल ही में रहती है। निश्चल में कदापि नहीं रहती-इसका मर्म समझना चाहिए ॥८॥ जितना कुछ चंचलाकार है वह सब माया है और मायिक सब लय हो जायगा-इसमें छोटा बड़ा कहने की आवश्यकता नहीं ॥ ६॥ सारी माया फैली हुई है-श्नधा प्रकृति विस्तृत है-और नाना प्रकार के रूप में चित्रविचित्र विकार पाई हुई है ॥ १०॥ नाना प्रकार की उत्पत्ति के अनेक विकार; नाना प्रकार के छोटे बड़े प्राणी; तथा माना रूपों के पदार्थ, इत्यादि सब माया का खेल है॥ ११ ॥ यह विकारवान् माया विकृत होकर सूक्ष्म से स्थूल होती है और अमर्यादित रीति से कुछ की कुछ बन कर देख पड़ती है ॥ १२ ॥ फिर नाना प्रकार के शरीर बनते हैं, अनन्त नाम रखे जाते हैं और