पृष्ठ:दासबोध.pdf/३८९

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३१० दासबोध। [ दशक ११ स्वच्छन्दता के साथ दौड़ता है । वून्द, फूहे और अणु-रेणु कहां तक गिने जाय ॥ ५॥ बाढ़ में बहुत सा कूड़ा-कचरा वहता आता है, ऊंचे से पानी गिरता है, छोटे बड़े पत्थर, कंकड़, चट्टानें वीच में पड़ती हैं और भवर उठते हैं ॥ ६॥ कोमल धरती कट गई है, कठोर वैसी ही बनी है। यही हाल जगह जगह स्पष्ट से देखा जा रहा है ॥ ७ ॥ कोई इसमें बहते ही चले जाते हैं, कोई भवर में अटके पड़े हैं और कोई औंधे सुख होकर खंदक में अटक रहे हैं ॥८॥ कोई गिरते पड़ते चले जाते हैं, कोई कुचल-कुचल कर मर जाते हैं और कोई पानी भर जाने के कारण फूल गये हैं ॥६॥ जो बलवान हैं वे तैरते हुए उद्गम (ब्रह्म) तक पहुँच जाते हैं और उसका दर्शन करके स्वयं पवित्र बन कर तीर्थ- स्वरूप हो जाते हैं ॥ १० ॥ वहां (उद्गम में), ब्रह्मा आदि देवताओं के भवन हैं, ब्रह्मांड के देवताओं के स्थान हैं-जो लोग उलटी गंगा पैर कर जाते हैं वे सब वहां मिलते हैं ॥ ११ ॥ इस जल के समान कुछ निर्मल नहीं है, उसके ससान कोई चंचल भी नहीं है-उसे केवल 'आपोनारायण' कहते हैं ॥ १२ ॥ वह नदी बड़ी भारी है; परन्तु गुप्त है; सर्वकाल प्रत्यक्ष बहती है और देखो, स्वर्ग-मृत्यु-लोक और पाताल में भी फैली हुई है ॥ १३ ॥ नीचे उपर आठों दिशा में उसका पानी धूम रहा है । ज्ञाता लोग उसे जगदीश के समान ही जानते हैं ॥ १४ ॥ सारे मनुष्य, जो पात्र हैं, माया-नदी के पानी से भरे हुए हैं। किसीकिसीका पानी टपक जाता है (जैसे साधुओं का) और कोई कोई अपना पानी संसार में खर्च कर देते हैं (जैसे बद्ध मनुष्य) ॥ १५ ॥ किसीके साथ में वह हो जाती है, किसीके साथ में मीठी और किसीके साथ में तीखी, कसैली या नमकीन हो जाती है ॥ १६ ॥ जिस जिस पदार्थ से वह मिलती है उसमें उसीका रूप होकर मिलती है। गहरी पृथ्वी में वह । गहराई के साथ प्रविष्ट होती है ॥ १७ ॥ वह विष में विषमयी हो जाती अमृत में मिल जाती है, वह सुगंध में सुगंध और दुर्गध में दुर्गध ही हो जाती है ॥ १८ ॥ गुण-अवगुण में मिल जाती है। जिसके साथ मिलती है वैसी ही हो जाती है। ज्ञान के बिना उस उदक की महिमा नहीं मालूम होती ॥ १६ ॥ अपरम्पार पानी बह रहा है । यह नहीं जान पड़ता कि नदी है या झील | कितने ही लोग जलवास कर रहे हैं- (उसी माया में डूबे हैं) ॥ २०॥ उद्गम के उस पार जाने पर जब फिर कर देखते हैं तब वह पानी ही खतम हो जाता है-कुछ नहीं २.