पृष्ठ:दासबोध.pdf/३९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समास ८] अन्तरात्मा का निरूपण । रहता* ॥ २१ ॥ योगीश्वर वृत्तिशून्य होते हैं इस बात का विचार करना चाहिए । 'दास' कहते हैं कि बार वार कहां तक बतलाऊं ॥ २२ ॥ आठवाँ समास-अन्तरात्मा का निरूपण । ॥ श्रीराम ॥ पहले सकलकर्ता की वंदना करता हूं। वह सब देवों का स्वामी है। अरे भाई, कोई तो उसके भजन में प्रवृत्त हो । ॥१॥ उसके विना काम नहीं चलता; एक पत्ता भी उसके बिना नहीं हिलता, उसीके द्वारा तीनों लोकों का व्यापार चल रहा है ॥२॥ वह सब का अंतरात्मा है; देव-दानव और मानव जातियों का तथा चार खानियों, चार वाणियों का प्रवर्तक है ॥३॥ वह अकेला ही सव घटों में, भिन्नरूप होकर, व्यवहार करता है । सारी सृष्टि की बात कहां तक बताई जाय ? ॥ ४॥ ऐसा जो गुप्त ईश्वर है उसीको 'ईश्वर' कहना चाहिए। उसीके द्वारा सब लोग बड़े बड़े ऐश्वर्य भोगते हैं ॥ ५॥ उसे जो कोई पहचान लेता है वह विश्वम्भर ही हो जाता है। उसके आगे समाधि और सहज- स्थिति को कौन पूँछता है ? ॥ ६ ॥ जब तीनों लोक का विवरण किया जाय तब कहीं मुख्य मरी प्राप्त होता है। उस परम 'निधान' के प्राप्त हो जाने पर, फिर कोई परिश्रम बाकी नहीं रहता ॥ ७॥ वास्तव में ऐसा कौन है जो अंतरात्मा का विवरण कर के देखता हो ? जिसे देखो • वही थोड़ा-बहुत मालूम करके समाधान मान लेता है ॥ ८॥ अरे, यह देखा हुआ ही देखना चाहिए, विवरण किये हुए का ही फिर फिर विवरण करना चाहिए, और पढ़ा हुआ ही बार बार पढ़ना चाहिए! ॥६॥ अंतरात्मा कितना बड़ा है, कैसा है, उसका विचार करनेवाले की दशा कैसी होती है, इत्यादि अनेक देखी और सुनी हुई बातें विवेक बतला देता है ॥ १०॥ तथापि चाहे जितना देखा सुना जाय; पर वह अन्तरात्मा के लिए बस नहीं है । जीव, जो एक क्षुद्र देहधारी है, ( उस

  • मायारूप नदी में उद्गम की ओर तैर कर जव माया का उद्गम परब्रम्हस्वरूप पा लेते हैं

तव यदि पीछे फिर लौट कर देखते हैं तो मालूम होता है कि जिस नदी से अभी तैर कर आये हैं वह तो है ही नहीं । तव उन्हें मालूम होता है कि माया मिथ्या है, तव उन्हें जान पड़ता है कि नदी-वदी कुछ नहीं है-अर्थात् वे वृत्तिशून्य बन जाते हैं। .