पृष्ठ:दासबोध.pdf/३९१

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दासबोध। [ दशक ११ सर्वव्यापी अन्तरात्मा को ) क्या जान सकता है ? ॥ ११ ॥ उस पूर्ण (अन्तरात्मा ) को यह अपूर्ण (जीव ) क्यों नहीं जान सकता? इसी लिए कि यह (जीव) उसका अखंड रीति से विवरण नहीं करता-यदि यह अखंड रीति से विवरण करे तो फिर यह उससे पृथक् नहीं बचता (' यह ' भी वही' हो जाता है ) ॥१२॥ और विभक्त होकर न रहने- वाला ही (अनन्य होकर रहनेवाला ही) 'भक्त' कहला सकता है; अन्यथा व्यर्थ खटाटोप करके परिश्रम उठाना है ॥ १३ ॥ योही घर को देखे हुए चला आता है; पर घर के मालिक को नहीं पहचानता; अथवा राज्य ही से होकर चला आता है और राजा को नहीं पहचानता! ॥ १४ ॥ बड़े अचरज की बात है कि, देह के साथ में विपय-भोग तो करते हैं, और देह के योग से सुखी होते हैं; पर जो देह को धारण करनेवाला है उस (अन्तरात्मा ) को भूले रहते हैं ! ॥ १५ ॥ इस प्रकार लोग प्रत्यक्ष अविवेकी बने हुए हैं पर वे कहते क्या हैं कि, हम विवेकी हैं ! अच्छा भाई, जैसी जिसकी योग्यता हो वैसा करो! ॥ १६ ॥ अज्ञान लोग किसीका मन रखना नहीं जानते; इसी लिए ज्ञानी की जरूरत होती है; परन्तु ये ज्ञानी ही मूर्ख बने हुए हैं ! ॥ १७ ॥ जैसे कोई अपना गड़ा हुआ धन भूल जाय और इधर उधर भटकते फिरे; वैसे ही अज्ञान जीव, ईश्वर के पास रहते हुए भी, इधर उधर ढूँढ़ते फिरते हैं ॥ १८ ॥ सृष्टि में ऐसा कौन है जो इस अन्तरात्मा का ध्यान कर सके ? वृत्ति एकदेशीय होती है-वह इस सर्वव्यापी का आकलन कैसे कर सकती है ? ॥१६॥ ब्रह्मांड में, अनन्त रूपों से, अनन्त प्रकार के, प्राणी भरे हुए हैं । यहां तक कि भूगर्म और पापाणों के भीतर भी अनेक जीव भरे हैं ॥ २० ॥ उन सब में अनेकों में वह एक ही वरत रहा है-वह कहीं गुप्त है तो कहीं प्रकट है ॥ २१ ॥ परन्तु जो चंचल है वह निश्चल नहीं हो सकता-यह अनुभव की बात है-और जो चंचल नहीं है वही निश्चल परब्रह्म है ॥२२॥ इस शरीर के सब तत्व, जब एक एक करके चले जाते हैं तब उन्हींके साथ देहाभिमान भी उड़ जाता है-और चारो ओर निर्मल, निश्चल, निरंजन रह जाता है ! ॥ २३ ॥ वस्तुतः विवेक का मार्ग यह है कि, 'हम' कौन हैं, कहां हैं, कहां के हैं (यह सोचना चाहिए ) परन्तु प्राणी, जो स्वयं अपरिपूर्ण है उसे, यह जान नहीं पड़ता! ॥२४॥ अतएव, भले आदमी को विवेक धारण करना चाहिए और उसके द्वारा यह दुस्तर संसार तरना चाहिए; तथा हरिभक्ति करके अपने सारे वंश का भी उद्धार करना चाहिए ॥ २५॥