पृष्ठ:दासबोध.pdf/३९२

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समास ९] ज्ञानोपदेश । 5 नववाँ समास-ज्ञानोपदेश। ॥ श्रीराम ।। प्रथमतः मनुप्य को विधिपूर्वक कर्म करना चाहिए । इसमें यदि गड़- बड़ हो जाता है तो दोष लगता है ॥ १॥ इस लिए कर्म का प्रारम्भ करना चाहिए। जितना कुछ ठीक ठीक बन पड़े उतना अच्छा है और यदि अन्तर पड़ जाय तो वहां हरिस्मरण करना चाहिए ॥२॥ (खाली स्मरण' ही न करना चाहिए ) किन्तु यह विचार भी करना चाहिए कि, वह हरि कैसा है। संध्या के पूर्व उस जगदीश का चौवीस नामों से स्मरण करना चाहिए ॥३॥ वह चौबीसनामी; सहस्रनामी; अनन्तनामी- और अनामी-कैसा है, सो विवेक से अन्तःकरण में जानना चाहिए ॥ ४॥ ब्राह्मण स्नानसंध्या करके आता है और फिर वह देवतार्चन के लिए बैठता है, तथा विधिपूर्वक प्रतिमा-पूजन करता है । इस प्रकार अनेक देवताओं की मूर्तियां लोग प्रेमपूर्वक पूजते हैं; परन्तु जिसकी ये मूर्तियां है वह परमात्मा कैसा है-सो भी तो पहचानना चाहिए ! पह- चान करके भजन करना चाहिए । जैसे साहब को, पहचानने के बाद, चन्दगी करते हैं वैसे ही उस परमात्मा परमेश्वर को अच्छी तरह पहचा- नना चाहिए, तभी इस भ्रमसागर-भवसागर--का पार मिल सकता है ॥५-८ ॥ अवतारी पुरुष तो निजधाम को चले जाते हैं; परन्तु, उनकी मूर्तियों के द्वारा वह पूजा अन्तरात्मा को प्राप्त होती है ॥ ६ ॥ तथापि वे अवतारी भी निजरूप में रहते हैं। वह निजरूप' जगज्ज्योति' है-यही सत्वगुण है और इसीको चेतनाशक्ति कहते हैं ॥ १०॥ उस शक्ति के पेट में करोड़ों देवता रहते हैं-ये अनुभव की बातें प्रत्यय से जानना चाहिए ॥ ११ ॥ देहरूपी नगरी में जो ईश रहता है उसे पुरुष कहते हैं और सम्पूर्ण जगत् में जो व्याप्त है उसे जगदीश कहते हैं ॥ १२ ॥ सम्पूर्ण संसार के शरीरों को चेतना ही चलाती है और इसी चेतना को अन्त:- करण-विष्णु जानना चाहिए ॥ १३ ॥ वह विष्णु सम्पूर्ण जगत् के अन्त:- करण में है और वही हमारे अन्तःकरण में भी है । चतुर पुरुष उसी अन्तरात्मा को कर्त्ता-भोक्ता जाने ॥ १४ ॥ वही सुनता, देखता, सूंघता और चखता है । बुद्धि से विचार करके वही सब कुछ पहचानता है और अपना-पराया वही जानता है ॥ १५ ॥ वास्तव में सम्पूर्ण जगत् का अन्तरात्मा वह एक ही है; परन्तु शारीरिक मोह बीच में आ पड़ा है; ४०