पृष्ठ:दासबोध.pdf/३९३

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दासबोध। [ दशक ११ शरीर ही के योग से वह भिन्न होकर अभिमान धारण करता है ॥१६॥ वह उपजता है, बढ़ता है, मरता है, मारता है, और जिस प्रकार समुद्र के योग से लहरों पर लहरें उठती जाती हैं उसी प्रकार इस अन्तरात्मा के योग से त्रैलोक्य होता जाता है ॥१७॥ तीनों लोकों को चलाने, वाला वह एक ही है, इसी लिए उसे त्रैलोक्यनायक कहते हैं-यह अनुभव की बात प्रत्यक्ष देख लेना चाहिए ॥१८॥ ऐसा अन्तरात्मा कहा है; परन्तु इसकी भी तत्वों में ही गणना है। इसके बाद महावाक्य का विचार करना चाहिए ॥ १६॥ प्रथम अपने देह के अन्तरात्मा को देखना चाहिए; फिर उसीको सम्पूर्ण जगत् में ध्यापक जानना चाहिए। इसके बाद परब्रह्म का विचार आता है ॥ २०॥ परब्रह्म का विचार करने से सारासार का निर्णय हो जाता है। यह निश्चय है कि, चंचल का नाश होगा ही ॥२१॥ निरंजन 'वस्तु ' उत्पत्ति, स्थिति और संहार से परे है । वहां ज्ञान का विज्ञान हो जाता है ! ॥२२॥ जव श्राठों देहों का, तथा नाम-रूप आदि का, विवेक के द्वारा निर- सन हो जाता है तब निरंजन विमल ब्रह्म की प्राप्ति होती है ॥ २३ ॥ विचार ही से अनन्य होना चाहिये; देखनेवाले के बिना-दृष्टापन के बिना-अनुभव (प्रत्यय) अाना चाहिये; परन्तु (प्रत्यय आना) यह भी वृत्ति है। इस वृत्ति की भी निवृत्ति होनी चाहिये । अच्छी तरह विचार करो ॥ २४ ॥ बस, इतने पर 'चाच्यांश' छूट जाता है; 'लक्ष्यांश' भी विवेक से देख कर छोड़ दिया जाता है तथा 'लक्ष्यांश' के साथ ही वृत्ति- भावना भी चली जाती है ॥ २५ ॥ दसवाँ समास-निस्पृह का बर्ताव । ॥ श्रीराम ॥ मूर्ख एकदेशीय (संकुचित विचारवाला) होता है; और चतुर, जिस प्रकार अन्तरात्मा सर्वव्यापक होकर नाना सुख भोगता है उसी प्रकार, सर्वत्र देखता है ॥१॥ महन्त भी वही अन्तरात्मा है; वह संकुचित विचारवाला कैसे हो सकता है ? वह तो व्यापक, सर्वज्ञ और विख्यात योगी होता है ॥२॥ वास्तव में कर्ता और भोक्ता वही है; भूमंडल में सब सत्ता उसीकी है । उसके बिना उसे देखनेवाला (जाननेवाला) ज्ञाता और कौन हो सकता है ! ॥ ३ ॥ ऐसा ही महंत. होना चाहिए-