पृष्ठ:दासबोध.pdf/४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भूमिका। यह ग्रंथ श्रीसमर्थ रामदासस्वामी के मराठी “ दासबोध" का अनुवाद है। इस स्थान में यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि श्रीरामदासस्वामी कौन थे और उनके " दासबोध" में किन किन विषयों की चर्चा की गई है तथा उसके हिन्दी-अनुवाद से क्या लाभ होगा। इनमें से पहली वात पाठकों को श्रीसमर्थ के जीवन- चरित से मालूम हो जायगी जो इस ग्रंथ के साथ संक्षेप में प्रकाशित किया गया है; और दूसरी बात के लिये उनको “ दासबोध" को तात्विक आलोचना की ओर ध्यान देना चाहिये जो उक्त चरित के बाद दी गई है। यहां मैं केवल यही प्रकट करना चाहता हूं कि, दासबोध जैसे परम कल्याणकारक ग्रंथ के अनुवाद करने का सौभाग्य मुझे कैसे प्राप्त हुआ; अनुवाद करने में किन किन लेगों से मुझे सहायता मिली; हिन्दी के प्रथ- प्रकाशकों की रुचि-भिन्नता, अदूर-दृष्टि, उदासीनता आदि के कारण इस पुस्तक के प्रकाशित होने में विलंब कैसे हो गया, इत्यादि । हिन्दी-केसरी के पढ़नेवालों को स्मरण होगा कि सन् १९०८ ई . के अगस्त महीने की २२ वीं तारीख से नवम्बर तक नागपुर को सेन्ट्रल जेल में मेरे सार्वजनिक जीवन का कुछ भाग व्यतीत हुआ था । मैंने सरकार से क्षमा मांगकर अपनी मुरुता प्राप्त कर ली-इस बात पर लोगों ने कुछ अनुकूल और बहुत प्रतिकूल टीका की; परंतु उस समय मैंने अपनी ओर से कुछ उत्तर नहीं दिया। उस विषय पर मैं अब भी किसी प्रकार की चर्चा करना नहीं चाहता। इसमें संदेह नहीं कि, कारागृह से मुक्त होने के बाद, मेरे अंतःकरण की दशा बहुत चंचल, क्षुब्ध और क्लेशदायक हो गई थी; इसलिये शांतिसुख का अनुभव करने के हेतु मुझे कुछ समय तक रायपुर में आकर अज्ञातवास का स्वीकार करना पड़ा । यहां एक ओर जनसमाज ने मुझे स्वदेशद्रोही, विश्वासघाती और डरपोक कह कर मेरा त्याग कर दिया और दूसरी ओर सरकार ने मुझे सलवाई, अराजनिष्ठ और विद्रोहकारी जानकर अपने जासूस-गुप्त' दूत-डिटेक्टिव-मेरे पीछे लगा दिये! ऐसी अवस्था में मेरी जो आंतरिक दुर्दशा हो रही थी उसका हाल में हो जानता हूं! परमात्मा की कृपा से मुझे बहुत दिनों तक उक्त मानसिक दुरवस्था में रहना नहीं पड़ा । मेरे प्यारे मित्र श्रीयुत वामन वलिराम लाखे, बी० ए० वकील और श्रीयुत केशव नारायण पाध्ये, ज्योतिषी ने शीघ्र ही गुरुवर श्रीधर विष्णु परांजपे, वी० ए० ( हनुमानगढ़-वर्धा-निवासी श्रीरामदासानुदास महाराज) का दर्शन करा दिया। यह मौका शनिवार ता. २१ नवम्बर सन् १९०८ ई. को मुझे नागपुर में मिला । साधुजनों का हृदय बहुत कोमल और दयाल होता है।