पृष्ठ:दासबोध.pdf/४०

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... श्रीसमर्थ रामदासस्वामी । का प्रथम खण्ड गत वर्ष में प्रकाशित किया है। उसकी प्रस्तावना में श्रीरामदास-सम्प्रदाय क्र महन्तों, शिष्यों और मठों का कुछ वर्णन दिया है । इसी आधार पर कुछ बातें यहाँ पर लिखते हैं। (अ) श्रीसमर्थ के महन्त । अभी तक कुल ८९ महन्तों का पता लगा है। उनमें से कुछ के नाम ये हैं:-१ कल्याणस्थामी, डोमगाँव के मठ में । २ दत्तात्रेयस्वामी, शिरगाँव के मठ में । ३ वासुदेवस्वामी, कण्हेरी के मठ में । ४ देवदास, दादगाँव के मट में । ५ उद्धवस्थामी, टाकली और इन्दूरवोधन के मठों में। दिवाकरत्वामी, चाफल के मठ में। ७ अनन्तमौनी, कर्नाटक के मठ में। ८ विश्वनाथ पण्डित को समर्थ ने उत्तर हिन्दुस्तान में भेजा था। ९ बालकृष्ण, वरार में रहते थे। १० माधव, यादव और वेणीमाधव प्रयाग में रहते थे । ११ जनार्दन, सूरत में रहते थे । १२ श्रीधर, रामकोट में। १३ गोविन्द, गोवा में । १४ शिवराम तैलंग-प्रान्त में । १५ शंकर, श्रीरंगपट्टन में 1 १६ हरिश्चन्द्र, अन्तर्वेदी में। १७ रामकृष्ण, अयोध्या में। १८ हरिकृष्ण, मथुरा में । १९ जयकृष्ण, मायापुरी में । २० रामचन्द्र, काशी में । २१ भगवन्त, कांधी में । २२ हरि, द्वारिका में। २३ दद्याल, बदरीकेदार में। २४ ब्रह्मदास, ओंकारेश्वर में। २५ बल्लाल, जगन्नाथ में.। २६ हनुमान, रामेश्वर में। ये नाम इन लोगों के मूल नाम नहीं है । वहुतेरे नाम समर्थ के रक्खे हुए हैं। इस देश के प्रायः सब प्रधान स्थानों में उनके भहन्त रहते थे। ऐसा एक भी तीर्थ-क्षेत्र नहीं था जहाँ उन्होंने अपना महन्त न भेजा हो । ये महन्त पहले वहुत दिनों तक, शिप्य की तरह पर, समर्थ के पास ही रह कर सम्प्रदाय की शिक्षा पाते थे। वे परमार्थमार्ग का रहस्य भली भाँति समझ लेते; समर्थ के ग्रन्थों की नकल करके श्रद्धापूर्वक पारायण करते; उनके गूढ़ तत्त्वों का स्वयं अनुभव प्राप्त करते; शास्त्रवचन, गुरुवचन और आत्मानुभव का निश्चय करते थे। इसके बाद- आतां होणार ते होये ना का । जाणार ते जाये ना का। तुटली मनांतील आशंका । जन्ममृत्यूची ॥४४॥ द०६ स०२॥ "अब जो कुछ होना हो सो क्यों न हो और जो कुछ जाना हो सो क्यों न जाय ! अद मरने-जीने का कोई डर नहीं रहा।" इस प्रकार की निदर्शक और निर्भय वृत्ति से जगत, के उद्धार का कठिन कार्य करने के लिए, श्रीसमर्थ की आज्ञानुसार, सारे हिन्दुस्तान में या किसी एक विशिष्ट प्रान्त में भ्रमण करते थे। महन्त का मुख्य कर्तव्य उन्होंने यही रक्खा था:- महन्त महन्त करावें । युति बुद्धीने भरावें ॥ जाणते करून विसरावें । नाना देशीं ॥ २५॥ दा० वो०१० ११ स०१०।।