पृष्ठ:दासबोध.pdf/४०२

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समास ४] विवेक-वैराग्य । ३२३ योग के व्यर्थ ज्ञान वकना ऐसा है जैसे कारागृह में बन्दी बना हुआ पुरुप पुरुपार्थ की बातें करता हो ॥ ८ ॥ वैराग्य बिना ज्ञान की बातें करना व्यर्थ अभिमान दिखलाना है। ऐसे आदमी को मोह और दम्भ के कारण कष्ट उठाना पड़ता है ॥ ६॥ कुत्ता बाँधने पर भी भुंकता है; इसी तरह वह भी स्वार्थ से बड़बड़ाता है और अभिमान के कारण दूसरे का उत्कर्ष नहीं देख सकता ॥ १०॥ विवेक के बिना वैराग्य, अथवा वैराग्य के बिना विवेक-दोनों अवस्थाओं में शोक ही होता है । अब विवेक और वैराग्य दोनों का योग जिसमें होता है उसके लक्षण सुनिये:-॥११॥ ऐसा पुरुष विवेक के द्वारा तो भीतर से विरक्त होता है और वैराग्य के द्वारा 'प्रपंच' से अलग होता है-इस प्रकार वह अन्तर्बाह्य मुता होकर निस्संग योगी बन जाता है ॥ १२ ॥ जैसा मुख से ज्ञान बतलाता है वैसा ही आचरण भी करता है । उसका उपदेश सुन कर बड़े बड़े 'पवित्र पुरुप भी चकित होते हैं ॥ १३॥ बह त्रैलोक्य राज्य की भी परवा नहीं करता है, उसमें वैराग्य की स्थिति समा जाती है और यत्न, विवेक तथा धारणशक्ति की उसमें सीमा नहीं रहती ॥ १४ ॥ वह हृदयपूर्वक सुन्दर रसाल हरिकीर्तन करता है, तालस्वर के साथ प्रेमपूर्वक भक्तिपूर्ण भजन गाता है ॥ १५ ॥ उसके हृदय में ऐसा विवेक जागृत रहता है कि, जिसके द्वारा वह अनेक लोगों को तत्काल ही सन्मार्ग में लगा सकता है । उसकी वक्तृता में अनुभव का साहित्य नहीं छूटने पाता ॥ १६ ॥ सन्मार्ग-प्रचार करता हुआ, अपनी व्यापकता से, जो जगत् में सम्पूर्ण लोगों में मिल जाता है उस पर जगदीश प्रसन्न होता है। अस्तु । सच तो यह है कि, मौका देखना चाहिए ॥ १७ ॥ प्रखर वैराग्य, उदासीनता, अनुभवजन्य ब्रह्मज्ञान, स्नान-संध्या, भगवद्भजन और पुण्यमार्ग का प्राच. ,रण होना चाहिए ॥ १८ ॥ वास्तव में विवेकयुक्त वैराग्य ही पक्का वैराग्य है-केवल वैराग्य या सिर्फ शब्दज्ञान से काम नहीं चलता ॥ १६ ॥ अतएव, विवेक और वैराग्य दोनों ही का होना महा भाग्य है । रामदास' कहते हैं कि, यह बात योग्य साधु ही जानते हैं ॥ २० ॥