पृष्ठ:दासबोध.pdf/४१३

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३३४ दासबोध। [दशक १२ . अपनी कीर्ति बनी रखनी चाहिए ॥ १३ ॥ जिसका वर्ताव अच्छा होता है वह बहुतों को मालूम हो जाता है । जो सब से विनीत-भाव रखता है उसके लिए किसी बात की कमी नहीं ॥ १४॥ ऐसे उत्तम गुण जिसमें होते हैं वही वास्तव में पुरुप है । उसके भजन से परमात्मा तृप्त होता है ॥ १५ ॥ चाहे जितना कोई धिःकार कर बोलता हो तो भी अपनी शान्तिभंग न होने देना चाहिए । उन साधुओं को धन्य है जो दुर्जन में भी मिल कर रहते हैं; अर्थात् उसे भी अपना सा कर लेते हैं ॥ १६ ॥ जो ज्ञान, वैराग्य, आदि उत्तम गुणों से सुशोभित है उसी एक को भूमं- डल में भला जानना चाहिए ॥ १७ ॥ स्वयं कष्ट सह कर बहुतों का उपकार करना चाहिए और इस प्रकार अपना शरीर परोपकार में लगा कर कीर्तिरूप से संसार में अमर रहना चाहिए ॥ १८॥ कीर्ति की ओर देखने से सुख नहीं है और सुख की ओर देखने से कीर्ति नहीं मिलती। विना विचार के कहीं भी समाधान नहीं है ॥ १६ ॥ दूसरे के हृदय में धका न लगाना चाहिए, भूल कभी न पड़ने देना चाहिए, जो क्षमाशील है उसकी प्रतिष्ठा को कभी हानि नहीं पहुँचती ॥ २० ॥ अपना हो चाहे पराया हो-काम सब करना चाहिए। मौके पर काम के लिए बरका जाना अच्छा नहीं ॥२१॥ यह तो प्रत्यक्ष जान पड़ता है कि, अच्छी तरह बोलने से सुख होता है । पराये को भी आत्मवत् मानना चाहिए ॥२२॥ यह तो जान ही पड़ता है कि, कठिन शब्द से बुरा मालूम होता है; तिस पर भी यदि बुरा बोले तो किस लिए ? ॥ २३ ॥ अपने चिमोटा लेने से कष्ट होता ही है-इसी तरह सब को समझना चाहिए ॥२४॥ जिस वाणी से दूसरे को दुख पहुँचता हो वह वाणी अपवित्र है-वह किसी समय अपना भी घात कर बैठेगी ॥ २५ ॥ जो वोया जाता है वही उगता है, जैसा चोला जाता है वैसा ही उत्तर मिलता है, तो फिर कर्कश क्यों बोलना चाहिए ? ॥ २६ ॥ अपने पुरुषार्थ और वैभव से बहुतों को सुखी करना ठीक है; परन्तु किसीको कष्ट देना राक्षसी काम है ॥ २७ ॥ भगवद्गीता में १६ वें अध्याय के चौथे श्लोक में कहा है कि, दंभ, दर्प, अभिमान, क्रोध और कठिन वचन अज्ञान का लक्षण है ॥२८॥ जो उत्तम गुणों से सुशोभित है. वही महा सजन है; और उसीको कितने ही आदमी ढूँढ़ते फिरते हैं ॥ २६ ॥ क्रिया बिना जो केवल शब्द- ज्ञान है. वही कुत्ते का वमन है । भले आदमी उसकी तरफ कभी देखते तक नहीं हैं ॥ ३० ॥ जो पुरुष मन से भक्षिा करता है और उत्तम गुणों को अवश्य ग्रहण करता है उस महापुरुष के लिए लोग हूँढ़ते चले पाते