पृष्ठ:दासबोध.pdf/४१८

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समास ३] उत्पत्ति-निरूपण। प्रकाशित रहता है ॥ १५ ॥ चर्सचक्षु और ज्ञानचक्षु आदि तो सभी पूर्व- पक्ष हैं । निर्गुण वास्तव में अलक्ष है-लखा नहीं जा सकता ॥ १६ ॥ सर्व- संग-परित्याग के विना कुछ परब्रह्म नहीं हो सकते । मौन्यगर्भ (ब्रह्म) को संगत्याग करके देखना चाहिए ॥ १७ ॥ निरसन करने से सारा निकल जाता है-जितना कुछ चंचल है सव निकल जाता है-निश्चल परब्रह्म रह जाता है। वही सार है ॥ १८ ॥ आठवें देह (मूलमाया) तक का निरसन हो जाता है। साधु लोग कृपापूर्वक मुक्ति का उपाय बतलाते हैं ॥ १६ ॥ " सोहं हंसः" (वह परब्रह्म में हूं)" तत्वमसि " (वह तू है)- यह स्थिति, विवेक से सहज ही प्राप्त होती है ॥ २० ॥ ऐसा पुरुष ऊपर ऊपर से तो साधक सा देख पड़ता है; परन्तु भीतर से परब्रह्म हो जाता है, इससे वृत्ति भी नहीं रहती । सारासार विचार का यही फल है ॥ २१ ॥ वह परब्रह्म न तपता है, न सिराता है, न उजला होता है, न काला होता है और न मैला होता है, न साफ होता है ॥ २२ ॥ वह न भीगता है, न सूखता है, न बुझता है, न जलता है और उसे कोई ले जा नहीं सकता ॥ २३ ॥ वह न दिखता न भासता है, न उपजता है, न नालता है, न आता है, न जाता है ॥२४॥ वह सन्मुख ही है; चारो ओर है, उसके तई दृश्यभास नहीं रहता-ऐसे निर्विकार ब्रह्म में जो लीन होता है वह साधु धन्य है ! ॥ २५ ॥ जो निर्विकल्प, अर्थात् कल्पनातीत है वही सत्स्वरूप है, और बाकी सब असत् या भ्रमरूप हैं ॥ २६ ॥ जो खौटा छोड़ कर खरा लेता है वही परीक्षावंत कहाता है । असारं छोड़ कर सार को, उस परब्रह्म को, लेना चाहिए ॥२७॥ जानते जानते जान- पन लीन हो जाता है और अपनी भी वृत्ति तद्रूप हो जाती है-इसीका नाम है आत्मनिवेदिनी भक्ति ॥ २८ ॥ चाच्यांश से भक्ति-मुक्ति बोलना चाहिये, लक्ष्यांश से तपता का अनुभव करना चाहिये । मनन करते करते जव ' हेतु ' न रहे उसी अवस्था को तद्रूपता कहते हैं ॥२६॥ सद्रूप, चिद्रूप, तद्रूप, और स्वस्वरूप-स्वस्वरूप अर्थात् अपना रूप, और अपनी रूप अर्थात् अरूप-यही दशा तत्व-निरसन के वाद होती है ॥३०॥ तीसरा समास-उत्पत्ति-निरूपण । ॥श्रीराम ॥ ब्रह्म घना और निराकार है । श्राकाश से भी अधिक विशाल, निर्मल,